Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 98
________________ (६८) पर्याप्तनामकर्म ), पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म, मनुष्य श्रायु, मनुष्यगति, तीर्थङ्करनामकर्म और उच्चगोत्र-इन १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है। भावार्थ-चौदहवे गुणस्थान में किसी भी जीव को वेदनीयकर्म की दोनों प्रकृतियों का उदय नहीं होता। इस लिये जिस जीव को उन दो में से जिस प्रकृति का उदय, चौदहवें गुणस्थान में रहता है उस जीवको उस प्रकृति के सिवाय दूसरी प्रकृति का उदय-विच्छेद तेरहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। औदारिक-द्विक-श्रादि उक्त तीस प्रकृतियों में से वेदनीयकर्म की अन्यतर प्रकृति के सिवा शेष २६ कर्म-प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकिनी (पुद्गल द्वारा विपाक का अनुभव कराने वाली) हैं इनमें से सुस्परनामकर्म और दुःस्वरनामकर्म-ये दो प्रकृतियाँ भाषा-पुद्गल-विपाकिनी हैं। इस से जब तक वचन-योग की प्रवृत्ति रहती है और भाषापुद्गलों का ग्रहण तथा परिणमन होता रहता है तभी तक उक्त दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है। शेष २७ कर्मप्रकृतियाँ शरीर-पुदल-विपाकिनी हैं इसलिये उनका भी उदय तभी तक हो सकता है जब तक कि काययोग के द्वारा पुगलों का ग्रहण,परिणमन और श्रालम्बन किया जाता है । तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में ही योगों का निरोध होजाता है। श्रतएव पुनल-विपाकिनी उक्त २६ कर्म-प्रकृतियों का उदय भी उसी समय में रुक जाता है। इस प्रकार तेरहवे गुणस्थान में जिन ४२ कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है। उनमें से अन्यतरवेदनीय और उक्त २६ पुद्गल-विपाकिनी-कुल ३०

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