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(.६०) . भी मनुष्यों को चार गुणस्थान तक ही हो सकता है । पञ्चमश्रादि-गुणस्थान प्राप्त होने पर,मनुष्यों में ऐसे सुख प्रकट होते हैं कि जिनसे उन में नीच-गोत्र का उदय हो ही नहीं सकता और उच्च-गोत्र का उदय अवश्य हो जाता है। परन्तु तिर्वञ्चों को तो अपने योग्य सब गुणस्थानों मेंअर्थात् पाँचौ गुणस्थानों में स्वभाव से ही नीचगोत्र का उदय . रहता है; उच्च-योत्र का उदय होता ही नहीं । तथा प्रत्याख्यानावरण. चार कपायों का उदय जय तक रहता है तब तक छठे . गुणस्थान से लेकर प्रामें के किसी भी गुरुस्थान की प्राप्ति नहीं होती और छठे श्रादि । गुणस्थानों के प्राप्त होने के बाद भी. प्रत्याख्यानावरणकपायों । का उदय हो नहीं सकता । इस प्रकार तिर्यञ्च गति-अमदि. उक्त आठ कर्म-प्रकृतियों के विना जिन ७६-कर्म-प्रकृतियों का उदय छ? गुणस्थान में होता है उन में "आहारक शरीरं- ' नामकर्म तथा श्राहारक-अल्मोपाङ्गनामकर्म, ये दो प्रतियाँ .
और भी मिलानी चाहिये जिससे छटे गुरुस्थान में उदययोग्य कर्म-प्रकृत्तियाँ ८१ होती हैं । छठे गुणस्थान में आहारक- . शरीर-नामकर्म का तथा आहारक-अल्गोपाङ्ग नामकर्म का । उदय उस समय पाया जाता है जिस समय कि कोई चतुर्दशपूर्वधर-मुनि, लब्धि के द्वारा श्राहारक-शरीर की रचना कर उसे धारण करते हैं । जिस समय कोई वैक्रिय-लब्धिधारी मुनि, लब्धि से वैक्रिय-शरीर को बनाकर उसे धारण करता . है उस समय उसको उद्योत-नामकर्म का उदय होता है । . क्योकि शास्त्र में इस आशय का धन पाया जाता है कि . यति को वैक्रिय शरीर धारण करते समय और देव को उत्तरवैक्रिय-शरीर धारण करते समय उद्योत-नामकर्म, का उदय होता है । अब इस जगह यह शङ्का हो सकती है किजव