Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 39
________________ (6) उदय में आने वाले दलिकों में स्थापित किया जाता है। और कुछ दलिकों को उस अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने बाल दलिकों के साथ मिला दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा हो जाता है कि जिस में मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का दलिक रहता ही नहीं। अतएव जिसका अवाधा काल पूरा हो चुका है,ऐले मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दो भाग हो जाते हैं। एक भाग तो वह. जा अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदयमान रहता है, और दूसरा भागवह जो अनिवृत्तिकरण के बाद, एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल व्यतीत हो चुकने पर उदय में आता है । इन दो भागों में से पहले भाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे भाग को द्वितीयस्थिति कहते हैं। जिस समय में अन्तर करण क्रिया शुरू होती है अर्थात् निरन्तर उदययोग्य दलिकों का व्यवधान किया जाता है, उस समय से अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उक्त दो भागों में से प्रथम भाग की उदय रहता है। अनिवृत्तिकरण का अन्तिम समय व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का किसी भी प्रकार का उदय नहीं रहता। क्योंकि उस वक्त जिन दलिकों के उदय को सम्भव है, वे सब दलिक, अन्तरकरण क्रिया से आगे और पीछे उदय में श्राने योग्य कर दिये जाते हैं।अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त मिथ्यात्व का उदय रहता है, इस लिये उस वख्त तक जीव मिथ्यात्वी कहलाता है । परन्तु अनिवृत्तिकरण काल 'व्यतीत हो चुकने पर जीवको औपंशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । क्योंकि उस समय मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता । इस लिये जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्वगुण व्यक्त होता है और

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