Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 45
________________ ( १५ ) से पुत्र आदि को नहीं रोकनाः उसे " प्रतिभवणा नुमति" कहते हैं । पुत्र आदि अपने संघन्धियों के पाप-कार्य में प्रवृत्त होने पर उनके ऊपर सिर्फ ममता रखना अर्थात् नतो पाप कर्मों को सुनना और सुन कर भी न उस की प्रशं सा करना, इसे "संवालानुमति " कहते हैं। जो श्रावक, पापजनक आरंभ में किसी भी प्रकार से योग नहीं देता केवल संचासानुमति को सेवता है, वह अन्य सब श्राषकों में श्रेष्ट है ॥५॥ प्रमत्त संयत गुणस्थान -- जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, वेही संयत (मुनि) हैं। संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं, तयतक प्रमत्तसंयत कहाते हैं, और उनका स्वरूपविशेष प्रमत्त संयत गुणस्थान कहाता है । जो जीव संयत होते हैं, वे यहां तक सावद्य कम्मों का त्याग करते हैं कि पूर्वोक्त संवासानुमति को भी नहीं सेवते । इतना त्याग कर सकने का कारए यह है कि, छटे गुणस्थानसे लेकर श्रागे प्रत्यास्थानावरण कषाय का उदय रहता ही नहीं है ||६|| श्रप्रमत्तसंयतगुणस्थान - जो मुनि निद्रा, विषय, कपाय विकथा - श्रादि प्रमादों को नहीं सेवते व श्रप्रमत्त संयत हैं, और उन का स्वरूप- विशेष, जो शान- श्रादि गुणों की शुद्धि तथा शशुद्धि के तरतम भावसे होता है, वह श्रप्रमत्तसंयत गुण-स्थान है । प्रमाद के सेवन से ही श्रात्मा रंगों की शुद्धिसे गिरता है : इस लिये सातवे गुणस्थान से लेकर श्रागे के सम गुणस्थानों में वर्तमान मुनि, अपने स्वरूप में छात्रमत्त हो रहते हैं ॥७॥

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