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में माना जाता है । श्रप्रत्याख्यानावरण-क्रोध-मान- माया और लोभ इन चार कषायों का बन्ध चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है, इस से श्रागे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि पञ्चम-आदि गुणस्थानों में प्रत्याख्यानावरण- कपाय का उदय नहीं होता । और कषाय के बन्ध के लिये यह साधारण नियम है कि जिस कषाय का उदद्य जितने गुणस्थानों में होता है उतने गुणस्थानों में ही उस कपाय का वन्ध हो सकता है | मनुष्यगति मनुष्य श्रानुपूर्वी और मनुष्य- श्रायु ये तीन कर्म - प्रकृतियाँ केवल मनुष्य जन्म में ही भोगी जा सकती हैं । इस लिये उनका बन्ध भी चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही हो सकता है। क्योंकि पाँचवे आदि गुणस्थानो में मनुष्य-भव-योग्य कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । किन्तु देव-भव - योग्य कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध होता है । इस प्रकार वज्र ऋषभ नाराच संहनन और श्रदारिकद्विकअर्थात् श्रदारिक शरीर तथा श्रदारिक अङ्गोपाङ्ग इन तीन कर्म - प्रकृतियों का बन्ध भी पाँचवे आदि गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि वे तीन कर्म- प्रकृतियाँ मनुष्य के श्रथवा तिर्यञ्च के जन्म में ही भोगने योग्य हैं और पञ्चम- श्रादि गुणस्था नो में देव के भव में भोगी जासके ऐसो कर्म - प्रकृतियों का ही वन्ध होता है । इस तरह चौथे गुणस्थान में जिन ७७कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है उन में से वजॠषभ-नाराचसंहनन - श्रादि उक्त १०-कर्म- प्रकृतियों के घटा देने से शेष ६७ कर्म - प्रकृतियों का ही बन्ध पाँचवे गुणस्थानक में होता है ।
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• प्रत्याख्यानावरण- क्रोध, प्रत्याख्यानावरण-मान, प्रत्याख्यानाचरणमाया और प्रत्याख्यानावरण- लोभ इन चार कपायों का