Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 84
________________ (५४) तीसरंगुणस्थानकेसमय नहीं होता; परन्तु मिश्र-मोहनीयकर्म का उदय होता है । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान की उदय-योग्य १११-कर्म-प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी चार कषाय-श्रादि उक्त १२ कर्म-प्रकृतियों के घट जाने पर, शेष जो कमप्रकृतियाँ रहती हैं उनमें मिश्र-मोहनीय-कर्म मिलाकर कुलं. १०० कर्म-प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थानस्थित जीवों, को हो सकता है। चौथे गुणस्थान में वर्तमान,जीवों को १०४ कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है क्योंकि जिन १०० कर्म-प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है उनमें से केवल मिश्रमोहनीय कर्म का ही उदय चौथे गुणस्थान में नहीं होता, शेष ६६ कर्म-प्रकृतियों का उदय तो होता ही है । तथा सम्यक्त्वमोहनीयकर्म के उदय का और चारों श्रानुपूर्वियों, के उदय का भी सम्भव है । अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय ॥ १५ ॥ मनुष्य-मानुपूर्वी ५) तिर्यञ्च-आनुपूर्वी( ६ )वैक्रियेअष्टक (देवगति, देव-श्रानुपूर्वी, नरकगति, नरक-पानुपूर्वी, देव-श्रायु, नरक-श्रायु, वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अङ्गापाग (१४) दुर्भगनामकर्म(१५) और अनांदेयाद्रिक (अनादेयनामक तथा अयश कीर्तिनामक) (२७) इनं सत्रह कर्म-प्रकृतियों को चौथै गुणस्थान की उदययोग्य (१०४)कर्म प्रकृतियों में से घटा देने पर, शेष (८७) कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं । उन्हीं (८७)-कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवे गुणस्थान में होता है। उक्त ८७कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्चंगति (१)तियंञ्चआयु (२) नीचगोत्र (३) उद्योतनामकर्म (४) और प्रत्याख्यानावरण चार कषाय (८)॥१६॥

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