Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 83
________________ सुहम-तिगायय-मिच्छं मिच्छंतं सासण-इगार-सयं । निरयाणुपुन्वि-गुदया अण-थावर-इग-विगल-अंतो॥१४॥ सूक्ष्म-त्रिकातप-मिथ्यं मिथ्यान्तं सास्वादन एकादश-शतम् । निरयानुपूज्यनुदया दनस्थाधरैकविकलान्तः॥१४॥ मीसे सयमणुपुन्वो-णुदयामीसोदएण मीसंतो। चउसयमजएसम्माणुपुवि-खंवा विय-कसाया ॥ १५ ॥ मिले शत मानुपूर्व्यनुदयान्मिोदन मिश्रान्तः । चतुःशतमयते सम्यगानुपूर्वक्षिपादिनीयकषायाः ॥ १५ ॥ मणुतिरिणु पुग्विविउवट्ट दुहग प्रणाइज्जदुग सतग्छ। सगसीइ देसि,तिरिगइ भाउ निउज्जोय तिकसाया ॥१६॥ मनुज-तिर्यगानुपूर्वी-वैक्रियापकंदुर्भगमनादयद्विकंसप्तदशच्छेद सप्ताशितिदेशे तिर्यगत्यायु चोद्योत-तृतीय कषायाः१६ अच्छेश्रो इगसी पमत्ति आहार-जुगल-गक्खेवा। थीणतिगा-हारग दुग छेश्रो छस्सयरि अपमते ॥१७॥ अपच्छेद एकाशितिः प्रमत्ते श्राहारक-युगलप्रक्षेपात् । स्त्यानचित्रिकाहारक-द्विकच्छेदः षट्-सप्तति रप्रमत्ते ॥१७॥ - अर्थ-दूसरे गुणस्थान में १११ कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है क्योंकि जिन ११७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में होता है उनमें से सूक्ष्मत्रिक (सूचभनामकर्म,अप र्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म ) आतपनामकर्म मिथ्यात्वमोहनीय और नरकानुपूर्वी-इन ६ कर्म-प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान में वर्तमान जीवों को नहीं होता। अनन्तानुबन्धी चार कपाय,स्थावरनामकर्म, एकेन्द्रिय-जातिनामकर्म,विकलेन्द्रियाद्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय और तुचरिन्द्रिय)जाति. नामकर्म ॥१४॥और शेष भानुपूर्वी तीन अर्थाततिर्यञ्चानुपूर्वी, मनुजानुपूर्वी और देवानुपूर्वी इन१२- कर्मप्रकृतियों का उदय

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