________________
(४१)
में नहीं होता । यदि कोई जीव छठे गुणस्थान में देवप्रायु के बन्ध्र का प्रारम्भ कर उसे उसीगुणस्थान में पूरा कर देता है, तो उस जीव की अपेक्षा से अरति, शोक-श्रादि उक्त ६-कर्म-प्रकृतियाँ तथा देवश्रायु फुल ७-कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध विच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम-समय में माना जाता है ॥ ७॥
जो जीव छठे गुणस्थान में देव-श्रायु के वन्ध काप्रारम्भ कर उसे उसी गुणस्थान में समाप्त किये विना ही, सातवे गुणस्थान को प्राप्त करता है अर्थात्-छठे गुणस्थान में देवआयु का बन्ध प्रारम्भ कर सातवे गुणस्थान में ही उसे समाप्त करता है,उस जीव को सातवे गुणस्थान में ५६-कर्म'प्रकृतियों का बन्ध होता है । इसके विपरीत जो जीव छठे गुणस्थान में प्रारम्भ किये गये देव-श्रायु के बन्ध को, छठे गुणस्थान में ही समाप्त करता है-अर्थात् देव-श्रायु का वन्ध समाप्त करने के बाद ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त करता है उस जीव को सातवें गुणस्थान में ५८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है क्योंकि सासवें गुणस्थान में प्राहारकद्विक का बन्ध भी हो सकता है।॥८॥
भावार्थ-चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने से तीर्थङ्करनामकर्म बाँधा जा सकता है। तथा चोथे गुणस्थान में वर्तमान देव तथा नारक, मनुप्य-श्रायु को बाँधते हैं। और चतुर्थ गुणस्थान-वर्ती मनुष्य तथा तिर्यञ्च देव-श्रायु को बाँधते हैं। इसी तरह चौथे गुणस्थान में उन७४ कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध हो सकता है, जिनका कि बन्ध. तीसरे गुणस्थान में होता है श्रतएव सब मिलाकर ७७ कर्म-प्रकतियों का धन्ध चौथे गुणस्थानक