Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 75
________________ ( ४५ ) द पहले भाग के अन्त में ही हो जाता है । इस से वे दो कर्मप्रकृतियाँ आठवं गुणस्थान के पहले भाग के आगे बाँधी नहीं जा सकतीं । तथा सुरद्विक (२) (देवगति देव श्रानुपूर्वी) पञ्चेन्द्रियजाति. (३) शुभ-विहायांगांत (४), त्रसनवक (१३) (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और श्र देय), श्रदारिक शरीर के सिवा चार शरीर नामकर्म, जैसे:Street नामकर्म (१४), श्राहारक - शरीरनामकर्म (१५), तैजसशरीरनामकर्म (१६.) और कार्मण - शरीरनामकर्म (१७). श्रदारिक अङ्गोपाङ्ग को छोड़कर दो श्रङ्गोपाङ्ग, वैकिय-श्र ङ्गोपाङ्ग (१८) तथा श्राहारक - श्रृङ्गोपाङ्ग १६ ) ॥ समचतुरस्त्र संस्थान (२०), निर्माणनामकर्म २१), तीर्थङ्कर नामकर्म (२२), वर्ण (२३), गन्ध (२४), रस (२५) और स्पर्शनामकर्म (२६,) अगुरुलघुचतुष्कः जैसे- श्रगुरुलघुनामकर्म (२७) उपघातनामकर्म (२८) पराघातनामकर्म (२६), और उच्च सनामकर्म (३०) ये नाम कर्म की (३०' प्रकृतियाँ श्राठ गुणस्थान के छठे भाग तक ही बाँधी जाती हैं; इस से श्रागे नहीं । श्रतएव पूर्वोक्त ५६-कर्मप्रकृतियों में से नाम-कर्म की इन ३०- प्रकृतियों के घटा देने पर शेष २६ - कर्म प्रकृतियों का हीं बन्ध आठवे गुणस्थान के सातवें भाग में होता है । हास्य, रति, जुगुप्सा और भय इन नोकपाय - मोहनीयकर्मकी चार प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद आठवे गुणस्थान के सातवें भाग के अन्तिम समय में हो जाता है । इस से उन ४ प्रकृतियों का बन्ध नववे श्रादि गुणस्थानों में नहीं होता ॥ १०॥ अतएव पूर्वोक्त २६-कर्म- प्रकृतियों में से हास्य श्रादि उक्त

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