Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 74
________________ ( ४४ ) हैं । परन्तु श्राहारक- शरीर तथा श्राहारक- श्रङ्गोपाङ्ग इन दो कर्म - प्रकृतियों को उक्त दोनों प्रकार के जीव सातवें गुणस्थान बाँध सकते हैं । श्रतएव पहले प्रकार के जीवों की अपेक्षा से सातवे गुणस्थान में उक्त ५७ और २ -- कुल ५६-कर्मप्रकृतियों का बन्ध माना जाता है । दूसरे प्रकार के जीवों की अपेक्षा से उक्त ५६ और २ कुल ५८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सातवें गुणस्थान में माना जाता है ॥ ६७ ॥ ८ ॥ अडवन्न अव्वाइंमि निद्द दुर्गतो छपन्न पणभागे । सुर दुग पणिदि सुखगइ तसनव उरलविणु तवंगा ॥ ६ ॥ अष्टपञ्चाशदपूर्वादी निद्राद्विकान्तः षट्पञ्चाशत् पञ्चभोग । सुरद्विक पञ्चेन्द्रिय सुखगति प्रसनवकमौदारिकाद्विना तनूपाङ्गानि ॥ ६ ॥ ७ ॥ 'समचउरनिमिण जिरावरण अगुरुलहु चउ छलंसि तीसंतो । चरमे छवीस बंधो हासरई कुच्छभयभेो ॥ १० ॥ समचतुरस्रनिर्माण जिनवर्णाऽगुरुलघुचतुष्कं पष्ठांशे त्रिंशदन्तः घरमे षडविंशतिवन्धो हास्यरतिकुत्साभयभेदः श्रनिर्या भागपणगे, इगेग होणो दुवीसवीहबंधो । म संजल चउरहं, कमेण छेश्रो सतरसुहुमे ॥ १० ॥ निवृत्ति भागपञ्चक, एकैकहीनो द्वाविंशतिविधवन्धः । पुंसंज्वलन चतुर्णां क्रमेणच्छेदः सप्तदशसूक्ष्मे ॥ ११ ॥ अर्थ- आठवे गुणस्थान के पहले भाग में, ५८ कर्म-प्रकृतियों का वन्ध हो सकता है। दूसरे भाग से लेकर छुट्टे भाग तक पांच भागों में ५६ - कर्म - प्रकृतियों का बन्ध होता है । क्योंकि निद्रा और प्रचला इन दो कर्म-प्रकृतियों का बन्ध-विच्छे "

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