Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 53
________________ (२३) प्रभाव में इष्ट के सिवा दूसरे अर्थ का भी वोध होने लगता है। "उपशान्तकपाय-वीतराग-छद्मस्थ-गुणस्थान" इस नाम में १ उपशान्तकपाय,२ वीतराग और ३ छन्मस्थ,ये तीन वि. शेषण हैं । जिनमें "छमस्था' यह विशेपण स्वरूप-विशेषण है; क्यों कि उस विशेषण के न होने पर भी शेष भाग से-अर्थात् उपशान्तकपाय-चीतराग-गुणस्थान. इतने ही नाम से इष्ट अर्थ का (ग्यारहवे गुणस्थान का) बोध हो जाता है, और इंट के अतिरिक्त दूसरे अर्थ का बोध नहीं होता । अतएव छमस्थ यह विशेपण अपने विशेष्य का स्वरूपमात्र जनाता है। उपशान्तकषाय और वीतराग ये दो, व्यावर्तक-विशेपण हैं, क्यों कि उनकें रहने से ही इष्ट अर्थ का बोध हो सकता है, और उनके अभाव में इष्ट के सिवाअन्य अर्थ का भी वोध होता है । जैसे-उपशान्त कपाय इस विशेषण के अभाव में वीतरागछमस्थ गुणस्थान इतने नाम से इष्ट-अर्थ के (ग्यारह गुणस्थान के) सिवा बारहवे गुणस्थान का भी वोध होने लगता है । क्यों कि बारहवें गुणस्थान में भी जीव को छम (शानावरण-श्रादि धाति कर्म) तथा वीतरागत्व ( राग के उदय का अभाव) होता है, परन्तु 'उपशान्त कपाय' इस विशेषण के ग्रहण करने से बारहवे गुणस्थान का बोध नहीं हो सकता; क्यों कि चारहवे गुणस्थान में जीव के कषाय उपशान्त नहीं होते बल्कि क्षीण हो जाते हैं । इसी तरह वीतराग इस विशेषण के अभाव में "उपशान्तकपाय छमस्थ · गुणस्थान" इतने नाम से चतुर्थ पंचम-श्रादि गुणस्थानों का भी बोध होने लगता है। क्यों कि चतुर्थ, पञ्चम आदि-गुण'. स्थानों में भी जीवके अनन्तानुवन्धी कषाय उपशान्त हो

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