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इन १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद मिथ्याटिगुणस्थान के अन्त में ही हो जाता है। इस से वे १६कर्म-प्रकृतियाँ पहले गुणस्थान से आगे नहीं वाँधी जा सकतीं तथा तिर्यञ्चत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक, दुभंगत्रिक अनन्तानुन्धिकषायचतुष्क, मध्यमसंस्थानचतुष्क, मध्यमसंहननचतुष्क, नीच. गोत्र, उद्यातनामकर्म,अशुभविहायोगतिनामकर्म और स्त्रीवेद इन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में ही हो जाता है । इस ले दूसरे गुणस्थान से. आगे के गुणस्थानों में उन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो नहीं सकता । इस प्रकार पूर्वोक्त १०१-कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्च-त्रिक-श्रादि उक्त२५ कर्म-प्रकृतियों के घटा देने से शेष ७६-कर्म प्रकृतियाँ रह जाती हैं । उन ७६-कर्म-प्रकृतियों से से भी मनुष्य-श्रायु तथा देव-आयु को छोड़कर शेष ७४ कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्यगमिथ्याटिगुणस्थान में (तीसरे गुरणस्थान में हो सकता है ॥५॥
भावार्थ-नरकगति, नरक-आनुपूर्वी और नरक श्रायुइन तीन कर्म-प्रकृतियों को नरकत्रिक शब्द से लेना चाहिये जातिचतुष्क-शब्द का मतलब एकेन्द्रियजाति द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति इन चार जातिनामकर्मों सें है । स्थावरचतुष्कशब्द,स्थावरनामकर्म से साधारणनामकर्म-पर्यन्त चार कर्म-प्रकृतियों का बोधक है। वे चार प्रकृतियाँ ये हैं-स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म ।
नरक-त्रिक से लेकर मिथ्यात्व-मोहनीय-पर्यन्त, जो-१६ कर्म-प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं वे अत्यन्त अशुभरूप हैं