Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 67
________________ (३७) इन १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद मिथ्याटिगुणस्थान के अन्त में ही हो जाता है। इस से वे १६कर्म-प्रकृतियाँ पहले गुणस्थान से आगे नहीं वाँधी जा सकतीं तथा तिर्यञ्चत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक, दुभंगत्रिक अनन्तानुन्धिकषायचतुष्क, मध्यमसंस्थानचतुष्क, मध्यमसंहननचतुष्क, नीच. गोत्र, उद्यातनामकर्म,अशुभविहायोगतिनामकर्म और स्त्रीवेद इन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में ही हो जाता है । इस ले दूसरे गुणस्थान से. आगे के गुणस्थानों में उन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो नहीं सकता । इस प्रकार पूर्वोक्त १०१-कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्च-त्रिक-श्रादि उक्त२५ कर्म-प्रकृतियों के घटा देने से शेष ७६-कर्म प्रकृतियाँ रह जाती हैं । उन ७६-कर्म-प्रकृतियों से से भी मनुष्य-श्रायु तथा देव-आयु को छोड़कर शेष ७४ कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्यगमिथ्याटिगुणस्थान में (तीसरे गुरणस्थान में हो सकता है ॥५॥ भावार्थ-नरकगति, नरक-आनुपूर्वी और नरक श्रायुइन तीन कर्म-प्रकृतियों को नरकत्रिक शब्द से लेना चाहिये जातिचतुष्क-शब्द का मतलब एकेन्द्रियजाति द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति इन चार जातिनामकर्मों सें है । स्थावरचतुष्कशब्द,स्थावरनामकर्म से साधारणनामकर्म-पर्यन्त चार कर्म-प्रकृतियों का बोधक है। वे चार प्रकृतियाँ ये हैं-स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म । नरक-त्रिक से लेकर मिथ्यात्व-मोहनीय-पर्यन्त, जो-१६ कर्म-प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं वे अत्यन्त अशुभरूप हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151