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मानी जाती है अर्थात् सामान्यरूप से चन्ध-योग्य१२०कर्मप्रकृतियाँ हैं। १२० कर्म-प्रकृतियों में से तीर्थङ्कर-नामकर्म और श्राहारक-द्विक को छोड़कर शेष ११७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध मियादृष्टिगुणस्थान में होता है।
भावार्थ-जिस श्राकारा -क्षेत्र में प्रात्मा के प्रदेश हैं उसो क्षेत्र में रहनेवालो कर्म-योग्य ‘पुद्गलस्कन्धों की वर्ग• रणाओं को कर्म रूपसे परिणत कर. जीव के द्वारा उनका . ग्रहण होना यही अभिनव-कर्म-ग्रहण है फिर्म-योग्य पुगलों का कर्म रूप से परिणमन मिथ्यात्व-श्रादि हेतुओं से होता है । मिथ्यात्वावरात.कषाय और योग ये चार, जोवके वैभाविक (विकृतास्वरूप है, और इसी सेवे,फर्म-पुद्गलों के कर्म-रूप बनने में निमित्त होते हैं। कर्म-पुद्गलों में जीव के ज्ञान-दर्शन-श्रादि स्वाभाविक गुणों को प्रावरण करने की शक्ति का हो जाना यही कर्म-पुद्गलों का कर्म-रूप बनना कहाता है । मिथ्यात्व-श्रादि जिन वैभाविक स्वरूपों से- कर्मपुद्गल कर्म-रूप बन जाते हैं, उन वैभाविक-स्वरूपों को भाव-कर्म समझना चाहिये । और कर्म-रूप परिणाम को प्राप्त हुए पुदलों को द्रव्य-कर्म समझना चाहिये । पहिले ग्रहण किये गये द्रव्य-कर्म के अनुसार भावकर्म होते हैं और भाव-कर्म के अनुसार फिर से नवीन द्रव्य -कर्मों का संबन्ध होता है । इस प्रकार कर्म से भाव-कर्म और भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म ऐसी कार्य-कारण-भाव को अनादि परंपरा चली आती है । श्रास्माके साथ बंधे हुये कर्म जव परिणाम-विशेष से एक स्वभाव का परित्याग कर दूसरे स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं तब उस स्वभावान्तर-प्राप्ति को संक्रमण समझना चाहिये, बन्ध नहीं। इसी अभिप्राय को