Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 48
________________ (१८) अपवर्तना-करण से घटा देना इसे "स्थितिघात" कहते हैं । २ – बँधे हुये ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रचुर रस ( फल देने की तीव्र शक्ति) को अपवर्तना-करण के द्वारा मन्द कर देना यही " रसघात " कहलाता है । ३ - जिन कर्म दलिकों का स्थितिघात किया जाता है अर्थात् जो कर्मदलिक अपने अपने उदय के नियत समयों से हटाये जाते हैं, उनको प्रथम के अन्तर्मुहूर्त्त में स्थापित कर देना "गुणश्रेणि" कहाती है । स्थापन का क्रम इस प्रकार हैः- उदय - समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त के जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समयों को छोड़ कर शेष जितने समय रहते हैं इनमें से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते हैं वे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक प्रथम समय में स्थापित दलिकों से असंख्यात गुण अधिक होते हैं । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरमसमयपर्यन्त पर पर समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक, पूर्व पूर्व समय में स्थापित किये गये दलिकों से असंख्यात गुण ही समझने चाहिये । ४- जिन शुभ कर्म प्रकृतियों का बन्ध अभी हो रहा है उनमें पहले बाँधी हुई अशुभ- प्रकृतियों का संक्रमण कर देनाअर्थात् पहले बाँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान बन्धवाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत करना " गुण-संक्रमण " कहलाता है । गुणसंक्रमण का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है - प्रथम समय में अशुभ प्रकृति के जितने दलिकों का शुभ-प्रकृति में संक्रमण होता है, उनकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुण अधिक

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