Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 47
________________ ( १७ ) safe में असंख्यात वर्ग हैं, जिन के सब श्रध्यवसाय मध्यम कहाते हैं । प्रथम वर्ग के जघन्य श्रध्यवसायों की शुद्धि की अपेक्षा अन्तिम वर्ग के उत्कृष्ट श्रध्यवसायों की शुद्धि अनन्त-गुण- अधिक मानी जाती है। और बीच के सब वर्गों में से पूर्व पूर्व वर्ग के अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर वर्ग के अध्यवसाय, विशेष- शुद्ध माने जाते हैं । सामान्यतः इस प्रकार माना जाता है कि सम-समयवर्ती अध्यवसाय एक दूसरे से अनन्त भाग अधिक-शुद्ध, श्रसंख्यात- भाग- अधिक- शुद्ध, संख्यात भाग- श्रधिक-शुद्ध, संख्यात गुण- अधिक-शुद्ध, असंख्यात-गुण- अधिक शुद्ध और अनन्त-गुण- अधिक-शुद्ध होते हैं । इस तरह की अधिक-शुद्धि के पूर्वोक्त श्रनन्त-भाग- अधिक श्रादि छःप्रकारों को शास्त्र में 'पदस्थान' कहते हैं । प्रथम समय के अध्यवसायों की अपेक्षा दूसरे समय के अध्यवसाय भिन्न. ही होते हैं, और प्रथम समय के उत्कृष्ट श्रध्यवसायों से दूसरे समयके जघन्य अध्यवसाय भी श्रनन्त-गुण-विशुद्ध होते हैं । इस प्रकार अन्तिम समयतक पूर्व पूर्व समय के श्रध्यवसायों से 'पर पर समय के अध्यवसाय भिन्न भिन्न समझने चाहिये । तथा पूर्व पूर्व समय के उत्कृष्ट अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त-गुण- विशुद्ध समझने । · इस आठवे गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है । जैसे- १ स्थितिघात, २ रसघात, ३ गुण. श्रेणि, ४ गुण संक्रमण और पूर्व स्थितिबंध | १ - जो कर्म- दलिक आगे उदय में आनेवाले हैं, उन्हें अप वर्तना-करण के द्वारा अपने अपने उदय के नियत समयों से "हटा देना- अर्थात् ज्ञानांवरण- श्रादि कर्मों की बड़ी स्थिति को

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