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है। और तीसरा पुञ्ज तो अशुद्ध ही रह जाता है । उपशान्ताद्धा पूर्ण हो जाने के बाद उक्त तीन पुँजोमें से कोई एक पुंज जीव के परिणामानुसार उदय में आता है । यदि जीव विशुद्धपरिणामी ही रहा तो शुद्धपुल उदयगत होता है। शुद्धपुल के उदय होने से सम्यक्त्व का घात तो होता नहीं इससे उस समय जो सम्यक्त्व प्रकट होता है, वह क्षायोपशमिक कहलाता है । यदि जीव का परिणाम न तो विल्कुल शुद्ध रहा और न बिलकुल अशुद्ध, किन्तु मिश्र ही रहा तो अर्धविशुद्ध पुंजका उदय हो पाता है। और यदि परिणाम अशुद्ध ही हो गया तव तो अशुद्ध पुञ्ज उदयगत हो जाता है, अशुद्ध पुल के उदयप्राप्त होने से जीव, फिर मिथ्यादृष्टि बन जाता है। अन्तर्मुहर्त्त प्रमाण उपशान्त-श्रद्धा, जिसमें जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द हो जाता है, उस का जघन्य एक समय या उत्कृष्ट छः (६) श्रावलिकाये जब बांकी रह जाती है, तव किसी किसी औपशमिक सम्यक्त्वी जीव को विघ्न आ पड़ता है अर्थात् उसकी शान्ति में भङ्ग पड़ता है । क्योंकि उस समय अनन्तानुबंधि कपाय का उदय हो पाती है । अनन्तानुवन्धि कपाय का उदय होते ही जीव सम्यक्त्व परिणाम का त्याग कर मिथ्यात्व की ओर झुक जाता है । और जब तक वह मिथ्यात्व को नहीं पाता तब तक, अर्थात् उपशान्त-अद्धा के जधन्य एक समय पर्यन्तं अथ चा उत्कृष्ट छः श्रावलिका पर्यन्त सासादन भाव का अनुभव करता है । इसी से उस समय वह जी सासादन सम्यग्दृष्टि कहाता है । जिसको औपशामक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, . चंही सासादन सम्यग्दृष्टि हो सकता है। दूसरा नहीं ॥२॥