Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 37
________________ (७) प्रसंगवश इसी जगह श्रीपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति का क्रम लिख दिया जाता है ॥ . . : . जीव अनादि काल से संसार में घूम रहा है, और तरह तरह के दुःखो को पाता है। जिस प्रकार पर्वत की नदी का । पत्थर इधर उधर टकरा कर गोल और चीकना बन जाता है,इसी प्रकार जीव भी अनेक दुःख सहते कोमल और शुद्ध परिणामी बन जाता है । परिणाम इतना शुद्ध हो जाता है कि जिस के बल से जीव श्रायुको छोड़ शेष सात कर्मों की स्थिति को पल्योपमासंख्यात भाग न्यून कोटा कोटी सागरोपम प्रमाण कर देता . है। इसी परिणाम का नाम शास्त्र में यथाप्रवृत्ति करण है। यथाप्रवृति करण से जीव रागद्वेष की एक.ऐसी मजबूत गाँठ, जोकि कर्कश, दृढ और गूढ रेशम की गांठ के समान दुर्भेद है - वहां तक आता है, परन्तु उस गांठ को भेद नहीं सकता, इसी को प्रन्थिदेश की प्राप्ति कहते हैं। यथाप्रवृत्ति करण से अभव्य जीव-भी.ग्रन्थिदेश की प्राप्ति कर सकते हैं-अर्थात् कर्मों की बहुत,घड़ी स्थिति को घटा कर अन्तः: कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण कर सकते हैं, परन्तु वे रागद्वेष की दुर्भेद ग्रन्थिको तोड़ नहीं सकते। और भव्य जीव यथाप्रवृत्ति करण नामक परि. रणाम से भी विशेष शुद्ध-परिणाम को पा सकता है । तथा उसके द्वारा राग द्वेष की दृढतम प्रन्थि की-अर्थात् राग द्वेप के प्रति दृढ-संस्कारों को छिन्न भिन्न कर सकता है। भव्य • जीव जिस परिणाम से राग द्वेष. की दुर्भेद ग्रन्थि को लांघ जाता है, उस परिणाम को शास्त्र में "अपूर्वकरण"कहते हैं। "अपूर्वकरण" "नाम रखने का मतलब यह है कि इस प्रकार का परिणाम कदाचित् ही होता है, बार वार नहीं होता। अत एव वह परिणाम अपूर्वसा है। इसके विपरीत "यथाप्रवृत्ति"

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