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मिध्यादृष्टि गुणस्थान - मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा या प्रतिपत्ति) मिथ्या (उलटी) हो जाती है, वह जीव मिथ्यादृष्टि कहाता है - जैसे धतूरे के बीज को खानेवाला मनुष्य सफेद चीज़ को भी पीली देखता और मानता है । इसी प्रकार मिथ्यात्वा जीव भी जिसमें देव के लक्षण नहीं हैं उसको देव मानता है, तथा जिस में गुरु के लक्षण नहीं उसपर गुरु-बुद्धि रखता है और जो धर्मों के लक्षणों से रहित है उसे धर्म समझता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीवका स्वरूप - विशेष ही “ मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान " कहाता है ।
प्रश्न- मिथ्यात्वी जीव के स्वरूप विशेष को गुणस्थान कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि जब उसकी दृष्टि मिथ्या (श्रयथार्थ ) है तब उसका स्वरूप- विशेष भी विकृत- अर्थात् दो पात्मक हो जाता है |
उत्तर --- यद्यपि मिथ्यात्वी की दृष्टि सर्वथा यथार्थ नहीं होती, तथापि वह किसी श्रंशमै यथार्थ भी होती है । क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को मनुष्य, पशु, पक्षी श्रादि रूपसे जानता तथा मानता है । इस लिये उसके स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहा है। जिस प्रकार सघन बादलों 'का श्रावरण होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा नहीं छिपती, किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती ही है जिससे कि दिनरात का विभाग किया जा सके। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रवल उदय होने पर भी जीव का दृष्टि- :- गुण सर्वथा श्रावृत 'नहीं होता । श्रतएव किसी न किसी श्रंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है । ' '