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' (२) . ... उदय काल पाने पर कर्मों के शुभाशुभ फल का-भागना, "उदय" कहलाता है।
[अवाधा काल व्यतीत हो चुकने पर जिस समय कर्मके फल का अनुभव होता है, उस समय को "उदयकाल" समझना चाहिये।
वन्धे हुये कर्म से जितने समय तक प्रात्मा को अवाधा नहीं होती-अर्थात् शुभाशुभ-फल का वेदन नहीं होता उतने समय को "अवाधा काल” समझना चाहिये। . .
* सभी कमाँ का अवाधा काल अपनी अपनी स्थिति के अनुसार जुदा जुदा होता है । कभी तो वह अवाधा काल स्वाभाविक क्रमसे ही व्यतीत होता है, और कभी अपवर्तना करण से जल्द पूरा होजाता है।
. . .. जिस वीर्यविशेष से पहले बंधे हुये कर्म की स्थिति तथा रस घट जाते हैं उसको, अपवर्तना करण" समझना चाहिये।] .
अवाधा काल व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्मदलिक पीछे से उदय में आने वाले होते हैं, उनको प्रयत्नविशेष से खींचं कर उदय-प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उसे "उंदीरणा" कहते हैं।
बँधे हुये कर्म का अपने स्वरूप को न छोड़ कर प्रात्मा के साथ लगा रहना “सत्ता" कहलाती है। :, . . . . . .
[वद्ध-कर्म, निर्जरा से और संक्रमण से अपने स्वरूप को छोड़ देता है। . ...