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ही होनी चाहिए। इससे यह हो सकता है कि कदाचित उस द्वितीय कर्मग्रन्थ का ही नाम गोम्मटसार में लिया गया , हो और स्वतंत्रता दिखाने के लिए 'स्तव' शब्द की व्याख्या विलकुल बदल दी गई हो । अस्तु, इस विषय में कुछ भी निश्चित कहना साहस है । यह अनुमान-सृष्टि, वर्तमान. लेखकों की शली का अनुकरण मात्र है। इस नवीम द्वितीय. कर्मग्रन्थ के प्रणेता श्रीदेवेन्द्रसूरि का समय आदि पहले. कर्मअन्य की प्रस्तावना से जान लेना।
गोम्मटसार में स्तव' शब्द का साङ्केतिक अर्थ
इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान को लेकर बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का विचार किया है वैसे ही गोम्मटसार में भी किया है । इस कर्मग्रन्थ का नाम तो 'कर्मस्तव' है पर गोम्मटसार के उस प्रकरण का नाम 'वन्धोदयसख-युक्त:स्तव" जो "वन्धुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे थवं वाच्छं" इसा कथन से सिद्ध है (गो. कर्म गा.८७) । दोनों नामों में कोह विशेष अन्तर नहीं है। क्योंकि कर्मस्तव में, जो 'कर्म' शब्द है, उसी की जगह 'वन्धोदयसत्त्वयुक्त' शब्द रखा गया है ।। परन्तु 'स्तव' शब्द दोनों नामों में समान होने पर भी, उस के. अर्थ में बिलकुल भिन्नता है ।. 'कर्मस्तव में, 'स्तव शब्द का । मतलव स्तुति से है जो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है, पर गोम्मटसार में 'स्तष' शब्द का स्तुति. अर्थ न करके खास सांकेतिक अर्थ: किया गया है। इसी प्रकार उसमें 'स्तुति' शब्द का भी पारिभाषिक श्रर्थ, किया है जो और कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे: