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॥ शिला
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शिलान्यास पछीनां शुभाऽशुभ निमित्तोः - ॥ कल्याण
"विन्यस्य चैवं पुनरिष्टकां च, गंधोदकैः संपरिपूर्य गर्तम् । कलिका.
कृत्वा प्रसूनानि परीक्षयेच्च, निक्षिप्य चावर्तमथाक्षतानि ॥३८॥" खं० २॥
"तद्दक्षिणावर्तमतीव शस्तं, वामं तु नियं खलु दुःखदत्वात् । ।। २७ ।।
शाल्यादिभिः क्षेत्रजमृत्तिकाभिस्तन्मध्यगतँ परिपूर्य रक्षेत् ॥३९॥" उक्त विधिधी शिलान्यास करीने ते खाडाओने शुद्ध सुगंधि जल वडे भरी उपर पुष्पो तथा अक्षतो नाखीने आवर्तोनी परीक्षा करवी. जो ते खातोना जलमां दक्षिणावर्त उत्पन्न थाय, एटले के पुष्प अक्षतादि सृष्टिक्रमे फरतां देखाय तो निमित्त घणांज उत्तम जाणवां, Na] जलमा एथी विपरीत वामावर्त उत्पन्न थाय तो निमित्त अशुभ समजवां, परिणाम सारं नथी अम जाणी लेवू. दक्षिणावर्त के वामावर्तमांथी
कई पण निमित्त न देखाय तो निमित्त मध्यम प्रकारना जाणवां, जो असुभ निमित्त दृष्टिगोचर थयां होय तो शिलान्यास फरिथी शुभ - मुहूर्ते करवो जोइये.
शिला प्रतिष्ठा थया पछी शिल्पीए प्रत्येक शिला उपर चार चार थरो चणी लेवा, मध्यशिलाने फरती शिलाओ अथवा इंटो चणीने चोरस कुंडीनो आकार करी उपरथी शिला ढांकवी के जेथी कूर्म उपर भार न आवतां ते वचला पोलाणमा रही शके N शिला प्रतिष्ठित कर्या पछी चलित न करवी - शुभ मुहूर्ते प्रतिष्ठित कर्या पछी शिला चलायमान न करवी जोइये, जो चलित |
करे तो गृहस्वामी अने सूत्रधार-शिल्पी बनेने माटे अशुभ फलदायक थाय छे. आ संबन्धमां शास्त्र कहे छे के -
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