Book Title: Kalyan Kalika Part 2
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
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।। कल्याण
कलिका. खं० २॥
॥ चतुर्विशतिजिनस्तुतयः ।।
॥ ४७७ ॥
॥ अज्ञातकर्तृक-प्राकृतचतुर्विंशतिजिनस्तुतयः ।। (१) जो चामीयरकंतिकायकलिओ जो सोमसोमाणणो, जो नीलुप्पलपन्नवन्ननयणो जो लोयणाणंदणो ।
जो संसारसमुद्दतारणतरी जो तारहारुज्जलो, सो नाभेयजिणो जगुत्तमजसो दिज्जा सुहं सासयं ॥१॥ उक्खित्तामलकुंभभासुरकरा दिपंतदेहप्पहा, सेले हेममयंमि भत्तिभरिया बत्तीसदेवेसरा । नामातूरबोहपूरियनहा न्हाविंसु जं सो जिणो, अम्हाणं जियसत्तुरायतणओ दिज्जाऽजिओ मंगलं ॥२॥ जे चकंकुसपंकयंकियतला जे सोणपीणंगुली, जे आयंबनहप्पहापरिगया जे कुम्मजम्भुन्नया । जे भावेण य पाणिकप्पतरुणो जे पूयपाबोदया, ते पाया जिणसंभवस्स सरणं मे हुन्तऽसंताभया ॥३॥ जो संकंदणविंदवंदियपओ सव्वंगचंगप्पहो, सिद्धत्थामणमोयणो मुणिजणासेबिजमाणकमो । लोयालोयविलोयणोवममहानाणो चउत्थो जिणो, हुज्जा मे अभिनंदणो पइदिणं कल्लाणमालाकरो ॥४॥ गब्भे जम्मि गयंमि निम्मलगुणे नाणं धरते तहा, लोयालोयपहाकरे दसदिसोज्जोयं कुणंते खणा । जाया पुबदिसब्व झत्ति जणणी अंतोबहिं चुज्जला, सो देवो सुमई विहेउ सुमई भब्वाण भब्वाणणो ॥५॥ जो त्थंबेरमहत्थसुत्थियभुओ भासंतभामंडलो, रत्तासोयपवालकोमलकरो विच्छिन्नवच्छत्थलो । लच्छीकित्तिकरो नरोरगथुओ देवीसुसीमासुओ, हुज्जा मे परिपकविदुमवणच्छाओ सु छट्ठो जिणो ॥६।। उम्मीलंतमहंतकंतिकविसा सिझंतवोमंगणा, सीसे जस्स सहति फारमणिणो पंचप्पमाणा फणा । सोऽभिक्कंदियभीसणाऽसमसरो रोसग्गिनिग्गाहगो, अम्हाणं सुमणोरहो फलकरो होज्जा सुपासो जिणो ॥७॥
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(५
॥ ४७७ ।।
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