Book Title: Kadambari
Author(s): Banbhatt Mahakavi, Sheshraj Sharma
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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कवि वंशवर्णनम्
द्विजेन तेनाक्षतकण्ठकोष्ठ्यया महामनोमोहमलीमसान्धया । अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया निबद्धेयमतिद्वयी कथा ॥ २० ॥
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शुक्लानि यथा सम्पद्यन्ते तथा कृतानि शुक्लीकृतानि, "कृम्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि च्वि:" इस सूत्र से च्चिप्रत्ययः " अस्य च्वौ" इसमे अवर्णका ईत्व । यशसः अंशवः ( ष० त० ), तैः शुक्लीकृतानि ( तृ० त० ) यशोऽशुशक्लीकृतानि सप्त विष्टपानि येन सः तस्मान् ( बहु० ) । ततः = तस्मात् इति, तद् शब्द मे “पञ्चम्यास्तसिल्" इम सूत्रसे तसिल् प्रत्यय । अजायत = "जनी प्रादुर्भावे" धातुमे लङ् + त, "ज्ञाजनोर्जा" इस सूत्र जन् धातुके स्थानमें 'जा' आदेश । इस पद्यमें सरस्वतोके करकमलसे हवनके आम जलको पोछनेमें सम्बन्ध न होनेपर भी सम्बन्ध के वर्णनसे अतिशयोक्ति और यश किरणसे सातो लोकोंके श्वेतीकरणमें सम्बन्धके न होनेपर भी सम्बन्धवर्णनसे दूसरी अतिशयोक्ति इस अकार उनका संसृष्टि अलङ्कार है ।। १९ ।।
अन्वयः - द्विजेन तेन अक्षतकण्ठकौण्ठयया महा मनोमोहमलीमसाऽन्धया अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया अतिद्वयी इयं कथा निबद्धा ।। १९ ॥
ग्रन्थारम्भप्रसङ्गे महाकविर्बाणभट्टः स्वाऽहंकारं परिहरति--द्विजेनेति । द्विजेन = ब्राह्मणेन, तेन = बाणभट्टेन, अक्षतकण्ठकण्ठ्यया = अनष्टगलकुण्ठत्वया, महामनोमोहमलीमसाऽन्धया = समृद्ध चित्ताऽज्ञानमलिनविकलया, अलब्धवैदध्यविलासमुग्धया = अप्राप्त चातुर्य लीलामोहयुक्तया, तादृश्या धिया = बुद्धया, तथाऽपि अतिद्वयी = कथा द्वितयीमतिक्रान्ता, बृहत्कथां वासवदत्तां चाऽति क्रान्तेति भावः । इयं = मदबुद्धिसन्निकृष्टस्था, कथा कादम्बरीस्वरूपा कृतिः, निबद्धा - गुम्फिता ॥ २०॥ टिप्पणी-अक्षतकण्ठकौण्ठ्यथा = कुण्ठस्य भावः कौण्ठयं ष्यञ् प्रत्यय । "कुण्ठो मन्दः क्रियासु य” इत्यमरः । कण्ठे कौण्ठ्यम् (स० त० ) । न क्षतम् अक्षतम् (नब्० ) । अक्षतं कण्ठकौण्ठ्यं यस्याः सा तया महा० = महान् ( समृद्ध : ) यो मनोमोह : ( चित्ताऽज्ञानम् ) तेन मलीमसा ( मलिना ) सा चासौ अन्धा, तया ( क० धा० ) | अलब्धेत्यादिः = अलब्धवाऽसौ वैदग्ध्यविलासः ( क० धा० तेन ( हेतुना ) मुग्धा, तया ( तृ० त० ) । "मुग्ध: सुन्दर मूढयोः" इत्यमरः । अतिद्वयी = द्वयोमतिक्रान्ता, "अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीया" इससे समास । निबद्धा = नि + बन्ध + क्तः ( टाप् ) + सुः । इस पद्यमें वृत्यनुप्रास अलङ्कार है ।। २० ।
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उस बणभट्टने कुण्ठा (मा) नष्ट नहीं हुई है। बढ़े हुए चित्तके अज्ञानमे मलिन और दर्शन शनिमेनिकन निपणा विकन पनि म ऐसी अपनी बुद्धि मे ( भी ) बृहत्कथा और वाम अतिक्रमण (मान) करने वाली इस कादम्बरीरूप वथायन्धकी रचना की है ।। २० ।।

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