________________ साहित्यपरीक्षोपयोगी ग्रन्थ _महाकविश्रीहर्षविरचितं नैषधीयचरितं महाकाव्यम्। 'चन्द्रकला संस्कृत-हिन्दीव्याख्योपेतम् व्याख्याकार:-आचार्य श्रीशेषराजशर्मा 'रेग्मी:'। संस्कृतके सुप्रसिद्ध षट्-काव्य और अन्यान्य महाकाव्योंमें भी नैषधीयचरितमहाकाव्य का स्थान सर्वोपरि है यह बात सर्वजन् सम्मत है। साहित्यशास्त्रके गुण, अलङ्कार, रीति, रस और ध्वनि आदिकी दृष्टि से इसका स्थान अप्रतिम है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। इस काव्यमें अलङ्कार आदिके प्रदर्शनके प्रसङ्गमें यत्र-तत्र व्याकरक और दर्शन आदि शास्त्रोंके कई विषय अनूठे ढङ्गसे उपस्थित किये गये हैं। अतएव कहा भी गया है-'नैषध विद्वदोषधम्" / इसीलिए इसे "शास्त्रकाव्य" भी कहते हैं। इस महाकाव्यके उदयके अनन्तर संस्कृतके प्रसिद्ध और प्रौढ महाकाव्य किरातार्जुनीय तथा शिशुपालवध हतप्रभ हो गये हैं, अतएव कहा भी गया है-"उदिते नैषधे यानी क्व माघ: क्व च भारविः ?" वेदान्तमें खण्डनखण्डखाद्य के समान यह महाकाव्य भी असाधारण प्रौढ शैलीमें रचे जानेके कारण अत्यन्त दुरूह हो गया है। कवि तार्किक श्रीहर्षने स्वयम् इस महाकाव्य को "कविकुलाऽदृष्टाध्वपान्थ" अर्थात् कवियोंसे अदृष्ट मार्गमें निरन्तर चलानेवाला कहा है। इसी कारण महोपाध्याय मल्लिनाथकी जीवात् और नारायणपण्डितकी प्रकाश व्याख्या और अन्यान्य विद्वानों को अन्यान्य व्याख्याओं की विद्यमानतामें भी यह महाकाव्य इदानीन्तन छात्रोंको अवगाहन करने में और परीक्षामें साफल्य प्राप्त करनेमें अत्यन्त कठिन बन गया है। हमने इसी बातको लक्ष्य करके आधुनिक पद्धतिसे चन्द्रकला व्याख्या और हिन्दी अनवादसे अलङ्कृत कर इस महाकाव्यका प्रथम भाग (1-9 सर्ग ) प्रकाशित किया है। इसमें मूलपाठ, दण्डान्वय, व्याख्या अनुवाद और टिप्पणी इतने विषयोंका समावेश कर ग्रन्थको अत्यधिक सरल करनेका प्रयास किया किया है। यहाँपर स्थल-स्थल पर काव्यके मूल पाठके कतिपय पदोंकी आलोचना. तत्तत्पदोंकी व्याकरणाऽनुसार उत्पत्ति कोशप्रमाण और अन्य व्याख्याओंको आलोचना भी की गई है / मल्लिनाथजीकी "नाऽमूलं लिख्यते किञ्चिन्नाऽनपेक्षितमुच्यते / " अर्थात् अमूलक और अनपेक्षित कुछ भी नहीं कहा जाता है।" इस उक्तिको ध्यानमें रखकर इस व्याख्याकी अवतारणा की गई है। हम आशा करते हैं कि उत्तररामचरित, प्रसन्नराघव, मालतीमाधव, रघुवंश (प्रथम सर्ग), मेघदूत, हितोपदेश-मित्रलाभः, तर्कसंग्रहः, स्वप्नवासवदत्ता आदि ग्रन्थों पर टीका कारकी चन्द्रकला व्याख्याकी तरह नैषधीयचरित महाकाव्यमें भी प्रस्तुत चन्द्रकलाका समुचित प्रचार होग / / इसके अनुवादमें भी अनावश्यक विस्तारका परिहार का प्राञ्जल शैलीका अवलम्बन किया गया है। प्रथम सर्ग 5-00, 1-3 सर्ग 10-00 1-5 सर्ग 15-00, 1-6 सगं 25-00 साहित्यदर्पणः 'शशिकला' हिन्दी व्याख्या सहित व्याख्याकार-डॉ० सत्यव्रत सिह इसकी विमर्शाख्य विशद व्याख्या द्वारा विषय की दुरूह ग्रन्थियों का वस्तुतः सम्यक समुन्मोचन बन पड़ा है। इसमें कहीं भी मूल की उपेक्षा हुई प्रतीत नहीं होती। आरम्भ में एक सौ पृष्ठों की विस्तृत भूमिका है जिसमें कुछ अलङ्कारों पर वैज्ञानिक शोध सम्बन्धी दृष्टिकोण, स्वरूप तथा परस्पर वैषम्य संकेतित हैं। अभिनव संस्करण। संपूर्ण 35-00 1-6 परिच्छेद 22-50, 7-10 परिच्छेद 12-50 पुस्तक-प्राप्तिस्थान—चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, गोपालमन्दिर लेन, वाराणसी