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प्राचार्य-पुरन्दर महावादी श्री सिद्धसेन दिवाकर-रचित
* श्री वर्द्धमानद्वात्रिंशिका *
सदा योगसात्म्यात्समुदभूतसाम्यः,
प्रभोत्पादितप्राणिपुण्यप्रकाशः । त्रिलोकीशवन्द्यस्त्रिकालज्ञनेता,
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥१॥ अर्थ-क्षायिक भाव से उत्पन्न ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप योग की तादात्म्यता के अनुभव से जिनमें सदा समर्पण भाव विद्यमान है, जिन्होंने केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन की प्रभा से अपने शासन के अन्तर्गत प्राणियों में धर्म का उद्योत प्रसारित किया है, जो त्रिलोक के स्वामी देवेन्द्र, भूमीन्द्र एवं चमरेन्द्रों के लिये भी वन्दनीय हैं और जो मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यव ज्ञान-युक्त पुरुषों के स्वामी हैं, ऐसे सामान्य केवलियों के लिये इन्द्र तुल्य परमात्मा श्री वर्द्धमान स्वामी ही मेरी गति स्वरूप हों--मुझे शरण हो। (१) शिवोऽथादिसंख्योऽथ बुद्धः पुराणः,
पुमानप्यलक्ष्योऽप्यनेकोऽप्यथैकः । प्रकृत्याऽऽत्मवृत्त्याप्युपाधिस्वभावः,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥२॥ अर्थ-उपद्रवरहित, अपने तीर्थ की आदि करने वाले, तत्त्वज्ञ, बुद्ध, समस्त जीवों के रक्षक, इन्द्रिय जनित ज्ञान से अलक्ष्य, अनन्त पर्यायात्मक वस्तुओं के ज्ञाता होने से अनेक, निश्चय नय से एक, कर्मप्रकृति आदि के परिणाम से उपाधि स्वरूप, फिर भी आत्मवृत्ति के द्वारा स्वभावमय श्री जिनेन्द्र मेरी गति स्वरूप हों। (२)
जिन भक्ति ]
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