Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 121
________________ हे नाथ ! लोकोत्तर चरित्रवाले आपके चित्त में मैं रहूँ यह तो असम्भव है परन्तु आपका मेरे चित्त में रहना सम्भव है, और यदि ऐसा हो जाये तो मुझे कोई अन्य मनोरथ करने को आवश्यकता ही नहीं रहेगी। (१) निगृह्य कोपतः कांश्चित्, कश्चित्तुष्ट्याऽनुग्रह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः, प्रलम्भनपरैः परैः ॥२॥ हे नाथ ! ठगने में तत्पर अन्य देव कुछ मन्द बुद्धिवालों को कोप सेशाप आदि देकर और कुछ को प्रसाद से-वरदान आदि देकर ठगते हैं; परन्तु आप जिनके चित्त में हों वे मनुष्य ऐसे कुदेवों के द्वारा ठगे नहीं जाते । अतः आप मेरे चित्त में रहें तो मैं कृतकृत्य ही हूँ। (२) अप्रसन्नात्कथं प्राप्यं, फलमेतदसङ्गतम् ? । चिन्तामण्यादयः किं न, फलन्त्यपि विचेतनाः ? ॥३॥ हे नाथ ! कदापि प्रसन्न नहीं होने वाले आपसे फल कैसे प्राप्त किया जाये यह कहना असंगत है, क्योंकि चिन्तामणि रत्न आदि विशिष्ट चेतना रहित हैं फिर भी क्या वे फल प्रदान नहीं करते ? अवश्य करते हैं । (विशिष्ट चेतना रहित चिन्तामणि आदि स्वयं किसी पर प्रसन्न नहीं होते, फिर भी विधिपूर्वक उनकी आराधना करने वाले को फल प्राप्त होता है। उसी तरह से वीतराग परमात्मा की विधिपूर्वक आराधना करने वाले को फल अवश्य प्राप्त होता है । (३) वीतराग ! सपर्यातस्तवाज्ञापालन परम् । प्राज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥४॥ हे वीतराग ! आपकी पूजा की अपेक्षा भी आपकी आज्ञा का पालन श्रेष्ठ है, क्योंकि आराधक आज्ञा मोक्ष के लिए होती है और विराधक आज्ञा संसार के लिए होती है । (४) प्राकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचराः । प्रास्रवः सर्वथा हेय, उपादेयश्च संवरः ॥॥ 1 सपर्यायास्तवाज्ञापालनं 104 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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