Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 120
________________ तदेवं सर्वदेवेभ्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, कथं नाम परीक्षकैः ? ॥६॥ इस कारण भगवन् ! आप समस्त देवों में समस्त प्रकार से विलक्षण हैं, अत: परीक्षकगण आपको देव के रूप में कैसे प्रतिष्ठित करें ? (६) अनुस्रोतः सरत्पर्ण -तृणकाष्ठादियुक्तिमत् । प्रतिस्रोतः श्रयद्वस्तु, कया युक्त्या प्रतीयताम् ॥७॥ हे नाथ ! पत्ते, तृण (घास) और काष्ठ आदि वस्तु पानी के प्रवाह के अनुकूल चलें यह बात युक्ति-संगत है, परन्तु वे प्रवाह के प्रतिकूल चलें यह बात किस युक्ति से निश्चित की जाये ? (७) अथवाऽलं मन्दबुद्धि -परीक्षकपरीक्षणः । ममापि कृतमेतेन, वैयत्येन जगत्प्रभो ? ॥८॥ अथवा हे जगत्-प्रभु ! मन्द बुद्धि-युक्त परीक्षकों की परीक्षाओं से मुक्ति हुई तथा मुझे इस प्रकार की परीक्षा करने के हठाग्रह से मुक्ति हुई। (८) यदेव सर्वसंसारि -जन्तुरूपविलक्षणम् । परीक्षन्तां कृत धियस्तदेव तव लक्षणम् ॥६॥ हे स्वामिन् ! समस्त संसारी जीवों के स्वरूप से जो कोई विलक्षण स्वरूप इस विश्व में प्रतीत हो, वही आपका लक्षण है । इस प्रकार बुद्धिमान पुरुष परीक्षा करें। (६) क्रोधलोभभयाक्रान्तं, जगदस्माद्विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां, वीतराग! कथञ्चन ॥१०॥ हे वीतराग ! यह जगत् क्रोध और भय से आक्रान्त है, व्याप्त है, जबकि आप क्रोध आदि से रहित होने के कारण विलक्षण हैं । अतः मृदु (मन्द) बुद्धि वाले बहिर्मुख पुरुषों को आप किसी भी प्रकार से गोचर (प्रत्यक्ष) नहीं हो सकते । (१०) उन्नीसवाँ प्रकाश तव चेतसि वर्तेऽह -मिति वार्तापि दुर्लभा । मच्चित्ते वर्त्तसे चेत्त्व -मलमन्येन केनचित् ॥१॥ जिन भक्ति ] [ 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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