Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 134
________________ किये बिना ही त्रिलोकीनाथ श्री तीर्थंकर देवों के गुणों का उत्कीर्तन करने के लिये उत्साहित होते हैं।' उन महर्षियों का कथन है कि-"भगवान के गरगों के प्रभाव से हमारी मन्द बुद्धि भी प्रभावशाली हो जाती है । गुणों रूपी पर्वत के दर्शन से भक्ति के वशीभूत बने एवं बुद्धिहीन हम नवीन-नवीन वाणी को प्राप्त करते हैं।" योगी-पुङ्गवों के द्वारा भी अमूल्य श्री जिनेश्वर देवों का गुण-गान करने के लिये तत्पर बने महर्षि अपनी बाल चेष्टा बता कर प्रभु के गुणगान में अग्रसर होकर कहते हैं कि-'हे भगवन् ! आपको नमस्कार करने वाले तपस्या करने वालों से भी आगे बढ़ जाते हैं और आपकी सेवा करने वाले योगियों से भी अधिक हैं। धन्य पुरुषों को ही, नमस्कार करते समय आपके चरणों के नाखूनों की कान्ति मस्तक के मुकुट को शोभा धारण करती है। किसी से भी साम, दाम, दण्ड अथवा भेद कुछ भी ग्रहण किये बिना ही आप त्रैलोक्य-चक्रवर्ती बने हैं, यह सचमुच आश्चर्य है । जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त जलाशयों के जल में समान व्यवहार करता है, उसी प्रकार से हे स्वामी ! आप भी जगत् के समस्त जीवों के चित्त में समान रूप से निवास करते हैं। हे देव ! आपको स्तुति करने वाले सबके लिये स्तुत्य बन जाते हैं, आपकी अर्चना करने वाले सबके द्वारा अर्चना किये जाने के योग्य हो जाते हैं तथा आपको नमस्कार करने वाले सबके द्वारा नमस्कार किये जाने के पात्र बन जाते हैं । सचमुच आपकी भक्ति अचिन्त्य फलदायक है। हे देव ! दुःख रूपी दावानल के ताप से दग्ध आत्माओं को आपकी भक्ति आषाढ़ी मेघों की वृष्टि की तरह परम शान्ति प्रदान करने वाली है। हे भगवन् ! मोहान्धकार से मढ़ बनी आत्माओं के लिये आपकी भक्ति विवेक रूपी दीपक प्रज्ज्वलित करने वाली है। आकाश के बादलों की तरह, चन्द्रमा की चांदनी की तरह अथवा मार्ग के छाया-वृक्षों की छाया की तरह आपकी कृपा निर्धन अथवा धनी, मूर्ख अथवा गुणी सबको समान रूप से उपकारी है । हे भगवन् ! आपके चरणों के नाखूनों की कान्ति भवशत्रुओं से त्रस्त आत्माओं को वज्र-पंजर की तरह सुरक्षा प्रदान करती है। हे देव ! उन पुरुषों को धन्य है जो आपके चरणारविन्द के दर्शनार्थ दूर-दूर से भी सदा राजहंसों की तरह दौड़कर आते हैं । संसार के घोर जिन भक्ति ] [ 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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