Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 140
________________ श्री जिन-नाम-स्तवन ॐ हृो श्री अहँ नमः ॥ श्री जिनेश्वर देव की स्तवना करते हुए श्री जिन-सहस्रनाम मंत्र के अन्त में आचार्य - पुरन्दर श्री सिद्धसेनदिवाकर सूरीश्वरजी महाराज ने बताया है कि "लोकोत्तमो निष्प्रतिमस्त्वमेव, त्वं शाश्वतं मङ्गलमध्यधीश । त्वामेकमहन् ! शरणं प्रपद्य, सिद्धषिसद्धर्ममयस्त्वमेव ॥१॥" हे अधीश ! पाप लोकोत्तम हैं, निष्प्रतिम हैं, शाश्वत हैं और मंगल हैं । हे अर्हन् ! मैं आपका शरण अंगीकार करता हूँ, आप ही सिद्धर्षि एवं सद्धर्ममय हैं। (१) "त्वं मे माता पिता नेता, देवो धर्मो गुरुः परः ।। प्राणाः स्वर्गोऽपवर्गश्च, सत्त्वं तत्त्वं गतिर्मतिः ॥२॥" आप मेरी माता हैं, पिता हैं, नेता हैं, देव हैं, धर्म हैं, परम गुरु हैं, प्राण हैं, स्वर्ग एव अपवर्ग हैं, सत्त्व हैं, तत्त्व हैं, गति हैं और मति हैं। (२) "जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिनः सर्वमिदं जगत् । जिनो जगति सर्वत्र, यो जिनः सोऽहमेव च ॥३॥" . जिन दाता है, जिन भोक्ता है और समस्त जगत् जिन है, जगत में सर्वत्र जिन है, जो जिन है वह मैं स्वयं ही हूँ। (३) "यत् किञ्चित् कुर्महे देव ! , सदा सुकृतदुष्कृतम् । तन्मे निजपदस्थस्य, दुःखं क्षपय त्वं जिन! ॥४॥" हे देव ! हम जो सुकृत - दुष्कृत करते हैं, आपके चरणों में स्थित हमारे उन दुःखों का हे जिनेश्वर ! आप क्षय करें। (४) "गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं, गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिः श्रयति मां येन, त्वत्प्रसादात् त्वयि स्थितम् ॥५॥" आप अत्यन्त गुह्य से भी गुह्य रक्षक हैं। हमारे द्वारा किये गये इस जाप को आप ग्रहण करें, जिससे आपकी कृपा (प्रसाद) से आप में स्थित हमें सिद्धि प्राप्त हो। (५) जिन भक्ति ] [ 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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