Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 138
________________ गोत्र, कलत्र, पुत्र, मित्र, धन, धान, जीवन, यौवन, रूप पारोग्य एवं यश आदि प्रमुख सम्पदा सम्मुख होती हैं; ग्रामष्मिक स्वर्ग-अपवर्ग की लक्ष्मी मानों आलिंगन करने के लिये दौड़ी हुई आती है तथा सिद्धि एवं समस्त श्रेयस्कर वस्तुओं का समुदाय स्वतः ही पाकर प्राप्त होता है । संक्षेप में श्री जिन-गुण का अनुराग समस्त सम्पदाओं का मूल है।" श्री जिन-नाम-स्तवन-महिमा-- श्री जिनेश्वर देवों का स्वरूप अगम है, अगोचर है, फिर भी उनके गुणों से आकर्षित सत्पुरुष उन्हें बुद्धि-गोचर करने के लिये अनेक विशेषणों के द्वारा उनकी स्तवना करते हैं। उनमें से कुछ (श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरि रचित श्री जिनसहस्रनाममंत्र में से) यहाँ दिये जाते हैं - “परात्मा, परमज्योति, परम-परमेष्ठी, परमवेधस्, परमयोगी, परमेश्वर, सकल पुरुषार्थयोनि, अवविद्याप्रवर्तनकवीर, एकान्त-कान्तशान्तमति, भवद्-भावि-भूत-भावावभासी, कालपाशनाशी, सत्वरजस्तमोगुणातीत, अनन्तगुणी, वामनोगोचरातीतचरित्र, पवित्र, कारणकरण, तारण-तरण, सात्त्विकदैवत, तात्त्विकजीवित, निर्ग्रन्थ, परमब्रह्महृदय, योगीन्द्र-प्राणनाथ, त्रिभुवनभव्य कुलनित्योत्सव, विज्ञानानन्दपरब्रह्म कात्म्यसमाधि, हरिहरहिरण्यगर्भादिदेवापरिकलितस्वरूप, सम्यग्ध्येय, सम्यक्श्रद्धय, सम्यक्शरण्य, सुसमाहित-सम्यक्-स्पृहणीय, अर्हन्, भगवन्, आदिकर, तीर्थंकर, स्वयंसम्बुद्ध, पुरुषोत्तम पुरुषसिंह, पुरुषवरपुण्डरीक, पुरुषवरगन्धहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहित, लोकप्रद्योतकारी, लोकप्रदीप, अभयद, दृष्टिद, मुक्तिद, बोधिद, धर्मद, जीवद, शरणद, धर्मदेशक , धर्मसारथि, धर्मवर-चातुरन्त-चक्रवर्ती, व्यावृत्तछद्म, अप्रतिहत-सम्यग्ज्ञानदर्शनसम, जिन जापक, तीर्ण-तारक, बुद्ध-बोधक, मुक्त-मोचक, त्रिकालवित्, पारंगत, कर्माष्टक-निषूदक, अधीश्वर, शम्भु, स्वयम्भू, जगत्प्रभु, जिनेश्वर, स्याद्वादवादी, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वतीर्थोपनिषद्, सर्वपाखंड-मोची, सर्वयज्ञ-कुलात्म, सर्वज्ञकलात्म, सर्वयोगरहस्य, केवली, देवाधिदेव, वीतराग, परमात्मा, परम-कारुणिक, सुगत, तथागत, महाहंस, हंसराज, महासत्त्व, महाशिष, महाबौद्ध, महामैत्र, सुनिश्चित, विगतद्वन्द्व, गुणाब्धि, लोकनाथ, जित-मार-बल, सनातन, उत्तमश्लोक, मुकुन्द, गोविन्द, विष्णु, जिष्णु, अनन्त, अच्युत, श्रीपति, विश्वरूप, हृषिकेश, जगन्नाथ, जिन भक्ति ] [ 121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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