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व्यक्तियों के हृदय रूपी चैतन्य के पाप अधिष्ठाता बने हैं, उन भव्यात्माओं से महान् जगत में अन्य कोई है ही नहीं।
हे भगवन् ! आप कहीं भी हों, परन्तु हमारे हृदय का पाप कदापि त्याग मत करना; यही हमारी प्रापसे याचना है। आपके आश्रित आपके समान बनें, इसमें तनिक भी अघटित नहीं है । दीपक के सम्पर्क से क्या बत्तियाँ दीपकत्व प्राप्त नहीं करतीं ? इन्द्रिय रूपी मदोन्मत्त गजेन्द्र को मदहीन करने के लिये हे स्वामी ! भैषज तुल्य प्रापका शासन जयवंत होता है। हे त्रिभुवनेश्वर ! आप घाती कर्मों का क्षय करके शेष अघाती कर्मों की जो उपेक्षा करते हैं उस में लोकोपकार के अतिरिक्त अन्य क्या कारण है ? अन्य कोई कारण नहीं है । जिस प्रकार चंद्र-दर्शन से मंद-दृष्टि व्यक्ति भी पटु हो जाता है, उस प्रकार से आपका प्रभाव देखने से बुद्धिहीन व्यक्ति भी स्तवन करने के लिये बुद्धिमान हो जाता है।
हे स्वामी ! मोहान्धकार में डूबे जगत् के लिये पालोक के समान आकाश की तरह अापका अनन्त केवलज्ञान विजयी हो रहा है। लाखों जन्मों से उपार्जित कर्म भी आपके दर्शन से विलीन हो जाता है । दीर्घ काल से पत्थर के समान जमा हुआ घी भी क्या वह्नि से नहीं पिघलता ? हे स्वामी ! पिता, माता, गुरु अथवा स्वामी समस्त मिलकर भी जो हित नहीं कर सकते, वह आप अकेले अनेक के समान बन कर जगत् का हित करते हैं। जिस प्रकार रात्रि चंद्रमा से सुशोभित होती है, जिस प्रकार सरोवर हंसों से सुशोभित होता है और मुख-कमल जिस प्रकार तिलक से सुशोभित होता है, उसी प्रकार हे त्रिलोकीनाथ ! तीनों लोक केवल आपके द्वारा ही सुशोभित हो रहे हैं।"
( ३ )
श्री जिन-स्तुति का फल
श्री उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में बताया है किप्रश्न-"थयथुइमंगलेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ?"
उत्तर--"थयथुइमंगलेणं जीवे नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ । नाणदसणचरित्तबोहिलाभसंपन्न य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमागोवत्तिगं पाराहणं पाराहेइ ।”
जिन भक्ति ]
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