Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 135
________________ दुःखों से पीड़ित विवेकी व्यक्ति, जिस प्रकार संसार के जीव शीत से बचने के लिये सूर्य का आश्रय लेते हैं, उस प्रकार हे देव ! वे संसार के दुःखों से बचने के लिये आपका ही पाश्रय लेते हैं । हे भगवन् ! जो आपको अनिमेषस्थिर नेत्रों से निरन्तर देखते हैं, वे परलोक में निश्चित ही देवत्व (अनिमेष भाव) प्राप्त करते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिस प्रकार वस्त्रों का मेल स्वच्छ पानी से साफ हो जाता है, उसी प्रकार हे देव ! आपकी देशना रूपी निर्मल जल से धुली हुई आत्मा कर्म-मल-रहित हो जाती है। हे स्वामी! अापके नाम-मंत्र का जाप करने वाले व्यक्ति को सर्वसिद्धि-समाकर्षण-मंत्रत्व को प्राप्त कराता है । आपकी भक्ति में तल्लीन बनी आत्माओं को भेदन के लिये वज्र अथवा छेदन के लिये शुल भी समर्थ नहीं है। हे देव ! आपके आश्रय को ग्रहण करने वाली गुरुकर्मी प्रात्मा भी लघुकर्मी हो जाती है। क्या सिद्धरस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण नहीं होता ? हे स्वामी ! आपका ध्यान, स्तवन और पूजा करने वाली आत्मा ही अपने मन, वचन और काया को सफल बनाती हैं । हे स्वामी ! पृथ्वी पर विहरने वाले आपके चरणों की रज मनुष्यों के पाप रूपी वृक्षों का उन्मूलन करने के लिये महान् मदोन्मत्त हाथी का आचरण कर रही है । हे नाथ ! नैसर्गिक मोह से जन्म से ही मोहान्ध आत्माओं को केवल आप ही विवेक-चक्षु सपित करने के लिये समर्थ है। जिस प्रकार मन के लिये मेरु दूर नहीं है, उसी प्रकार से अापके चरण-कमलों में भौरों का आचरण करने वाले सेवकों के लिये लोकाग्र भी दूर नहीं है । जिस प्रकार वर्षा के जल से जामुन के वृक्ष से फल गिर जाते हैं, उसी प्रकार से आपकी देशना रूपी जल के सिंचन से प्राणियों के कर्म-पाश शीघ्र ही गल जाते हैं। हे जगन्नाथ ! आपको बार-बार नमस्कार करके मैं आपसे केवल एक ही याचना करता हूँ कि आपकी कृपा से समुद्र के जल की तरह मुझे आपकी अक्षय भक्ति प्राप्त हो। हे स्वामी ! केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् कृतार्थ होने पर भी आप केवल लोगों के लिये ही पृथ्वी पर विहार करते हैं। क्या गगन-मण्डल में सूर्य अपने स्वार्थ के लिये घूमता है ? नहीं, यह बात नहीं है। मध्याह्न में जिस प्रकार प्राणियों की देह की छाया संकुचित हो जाती है, उसी प्रकार से हे प्रभु ! आपके प्रभाव रूपी मध्याह्नकाल का आदित्य प्राणियों की कर्मों को संकुचित कर देता है । नित्य आपके दर्शन करने वाले तिर्यंचों को भी धन्य है, जबकि आपके दर्शन से वंचित स्वर्गवासी भी धन्य नहीं हैं। जिन 118 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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