Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 133
________________ श्राज्ञा-पालन श्रादि श्रन्य साधनों की भी श्रावश्यकता होती ही है, तो भी इन सब में प्राथमिक उपाय के रूप में जाप एवं स्तवन का प्रमुख भाग रहता है । जाप के बिना ध्यान नहीं होता और स्तवन के बिना श्राज्ञाराधना का उतना उल्लास जागृत नहीं होता । श्री जिन की यथास्थित प्राज्ञा की आराधना यथाख्यात् चारित्र का पालन है । यह दशा प्राप्त करने के लिए श्री जिन - गुण-स्तवन भी एक परम आवश्यक साधन है । यथाख्यात् चारित्र तक पहुँचे हुए पुरुष श्री जिनगुण का स्तवन न करें तो चल सकता है, परन्तु उस स्थिति तक पहुँचने से पूर्व ही प्रज्ञाराधना के नाम पर श्री जिन- गुण - स्तवन आदि का अवलम्बन त्याग देने का वाद करें वे दोनों से भ्रष्ट हो जाते हैं । आत्म-गुरण प्राप्ति में प्रधान निमित्त - अथवा श्री जिन गुण की स्तुति करना भी एक प्रकार से श्री जिनाज्ञा का पालन और आराधन है । "जिस प्रकार अन्न एवं धन की स्तुति करने से अन्न एवं धन प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार से श्री जिन- गुरण का स्तवन करने मात्र से उनकी प्राप्ति नहीं होती " - यह कहने में दृष्टान्त - वैषम्य है । अन्न एवं धन आत्म- बाह्य पदार्थ हैं । आत्म- बाह्य पदार्थों की प्राप्ति केवल स्मरण, स्तवन अथवा ध्यान से नहीं हो सकती, परन्तु उसके लिए बाह्य प्रयत्नों की भी आवश्यकता होती है; जबकि आत्म-गुरणों की प्राप्ति के लिए बाह्य प्रयत्नों की प्रधानता नहीं होती, किन्तु स्तवन आदि आन्तरिक प्रयत्नों की ही प्रधानता होती है। इसके लिए जिन - गुण स्तवन आत्म- गुणों की प्राप्ति में प्रधान कारण है । इस कारण पूर्व महर्षियों ने इस अंग को भी अन्य अंगों की तरह विशेष रूप से अपनाया है । श्री जिनेश्वरों की स्तुति -- श्री जिन गुरण - महिमा प्रदर्शित करने के लिये और श्री जिनेश्वर देवों के जगत् के जीवों पर असीम उपकार करने के लिये असाधारण वाक्शक्ति का प्रवाह बहाने वाले पूर्व महर्षियों का कथन है कि - "जिस प्रकार घड़ों के द्वारा समुद्र के जल का माप निकालना असम्भव है, उसी प्रकार हम जैसे जड़ बुद्धि वाले लाखों पुरुषों के द्वारा गुणों के सागर भगवान् श्री जिनेश्वर देवों के गुरगों की थाह लेना भी असम्भव है; फिर भी हम भक्ति से निरंकुश बने हुए अपनी शक्ति अथवा योग्यता का तनिक भी विचार 116 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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