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श्री जिन के गण-गान में थकान प्रदर्शित करने वाले पुरुष उनकी आज्ञापालन का दावा करते हों तो वह प्रायः दम्भ स्वरूप ही सिद्ध होगा। प्रायः कहने का तात्पर्य यह है कि संयोग के अभाव में गुणोत्कीर्तन के बिना भी क्वचित् आज्ञा-पालन हो सकता है, परन्तु प्राज्ञा-पालक एवं प्राज्ञा-पालन अभिलाषी व्यक्ति, संयोग एवं शक्ति होते हुए भी श्री जिन का गुणोत्कीर्तन करने वाला न हो, यह असंभव है। जाप एवं कीर्तन की प्रावश्यकता
धन अथवा अन्न का जीव को अनादिकालीन परिचय है । उनका नाम उसके होठों पर और उनके गुण उसके हृदय में गुथे हुए होते हैं। वह यदि भूलना चाहे तो भी धन एवं अन्न के गुण, उपकार अथवा लाभ भूल नहीं सकता। इस दशा में उसे अन्न अथवा धन का स्वतंत्र जाप करने की आवश्यकता नहीं होती अथवा उनकी स्तुति करने के लिये स्वतंत्र समय निकालने की भी आवश्यकता नहीं होती। श्री जिन अथवा उनके गुणों के लिये जीव की ऐसी दशा नहीं है। श्री जिन के गुणों का परिचय जीव को कदापि हा ही नहीं है और यदि हा हो तो स्मरण नहीं रहा, उसका प्रमारण यही है कि आज स्मरण कराने पर भी विस्मरण हो जाता है।
श्री जिन के अपार एवं अनन्त गुण, उनका अचिन्त्य प्रभाव, उनसे होने वाला आत्मा को अपूर्व लाभ, उनसे होने वाली निर्विकल्प समाधि और अव्याबाध सुख की प्राप्ति आदि की ओर जीव का चित्त लगता ही नहीं है। चित्त उन की ओर लगाने के लिये, मन को श्री जिन-गुण में स्थिर करने के लिये और उन गुणों की स्मृति ताजी रखने के लिये उनके नाम एवं गरणों का बार-बार जाप एवं कीर्तन करने की आवश्यकता है। उस नाम एवं गुणों के सतत् जाप, स्मरण एवं स्तवन से ही श्री जिन एवं उनके गुणों का परिचय किया जा सकता है । वे दोनों से भ्रष्ट हो जाते हैं -
श्री जिन-गुग्ग का अनुरागी बनने के लिये और उस अनुराग में से उत्पन्न होने वाली जिन-गण प्राप्ति के लिए उद्यम-रसिकता उत्पन्न करने के लिए उनके जाप और स्तवन की अनिवार्य आवश्यकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जाप तथा स्तवन से समस्त कार्य की सिद्धि हो ही जाती है। कार्यसिद्धि के लिए तो जाप एवं स्तवन के उपरान्त सेवा, उपासना और
जिन भक्ति ]
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