Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 131
________________ मानव-देह में प्राप्त बोलने एवं सोचने की शक्ति का प्रवाह नित्य होता ही रहता है । जिस प्रकार मन को नियंत्रण में रखना कठिन है, उसी प्रकार से प्राप्त वारणी को भी सर्वथा रोक देना, अमुक अवस्था तक नहीं पहुँचे मनुष्यों के लिये असंभव है । वारणी का कुछ न कुछ उपयोग तो होता ही है, तो फिर उसका सर्वोत्तम उपयोग क्या हो सकता है, उसे खोजना अनिवार्य हो जाता है । क्या नाम लेने से अथवा गुरण गाने से कार्य सिद्धि संभव है ? कुछ मनुष्य कहते हैं कि श्री जिन का नाम लेने से अथवा गुण-गाने से कार्य सिद्धि हो जाती हो तो अन्न अथवा धन का नाम लेने से अथवा गुण गाने से अन्न अथवा धन की प्राप्ति हो जानी चाहिए । नाम लेना अथवा गुण गाना तो केवल औपचारिक भक्ति है । सच्ची भक्ति तो उम नाम और गुण वाले के गुणों को प्राप्त करने का उद्यम ही है । जो व्यक्ति धन अथवा अन्न प्राप्त करने के लिये उद्यम नहीं करते, उन्हें उनके नाम का जाप अथवा गुणों का स्तवन क्या लाभ करता है ? नाम-स्मरण नहीं करने वाला ग्रथवा वाणी के द्वारा गुणों का लम्बा उत्कीर्तन नहीं करने वाला व्यक्ति भी यदि उनकी प्राप्ति के लिये उचित उद्यम करे तो उसे उस वस्तु की प्राप्ति होगी ही । इस प्रकार नाम-स्मरण अथवा गुरगोत्कीर्तन का कोई विशेष फल नहीं है, यह निश्चय करके जो लोग उसकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तु का एक पक्ष ही ग्रहण करते हैं और कार्य सिद्धि करने वाले अन्य उपयोगी पक्षों का एकान्तवादी बन कर त्याग करते हैं । उद्यम एवं आज्ञा-पालन के लिये प्रेरक तत्त्व उद्यम अथवा प्रज्ञा-पालन के बिना कार्य सिद्धि असंभव है, तो भी उक्त उद्यम की ओर आत्मा को प्रेरित करने वाली प्रथम वस्तु कौनसी है, इस पर चिन्तन करना शेष रहता है। जिसका नाम किसी को ज्ञात नहीं है और जिसके गुणों के प्रति जिसे अनुराग नहीं है, उस वस्तु की प्राप्ति के लिये कभी उद्यम हुआ हो यह किसी ने कभी नहीं देखा । जहाँ जिस वस्तु की प्राप्ति के लिये उद्यम होता है वहाँ उस वस्तु के नाम का और गुणों का परिचय होता है । श्री जिन की आज्ञा के पालन के लिये उद्यमशील होने की अभिलाषा उनके गुणों के ज्ञान एवं गान के बिना बन्ध्या रहने के लिये ही सर्जित है । 114] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142