Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 125
________________ परिशिष्ट श्री जिनगुण स्तवन की महिमा गगन तणु जेम नहि मानं । तेम अनन्त फल जिन गुण ( १ ) गार्न - श्री सकलचंद्रजी उपाध्याय Jain Education International वक्तृत्व एवं कवित्व शक्ति स्तुति, स्तवन, प्रशंसा, वर्णवाद आदि एक ही अर्थ व्यक्त करने वाले शब्द हैं | स्तुति अथवा स्तवन, प्रशंसा अथवा वर्णवाद, व्यक्त शब्दोच्चार के द्वारा हो सकता है । संसार में ऐसे अनन्त प्राणी हैं कि जिनमें व्यक्तशब्दोच्चारण की शक्ति ही नहीं है । समस्त एकेन्द्रिय प्राणी इस शक्ति से रहित हैं तथा जीभ वाले दो इन्द्रिय प्रादि समस्त प्राणी भी वर्णवाद के योग्य व्यक्त-शब्दोच्चार करने की शक्तियुक्त नहीं होते । संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राप्त देवों तथा मनुष्यों को ही अनादि संसार में परिभ्रमण करने से क्वचित् यह शक्ति प्राप्त होती है । इनके अतिरिक्त प्राणी तो स्वकर्म परिणाम से आवृत्त हैं । 1 11 प्रबल ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से विशिष्ट चित् शक्ति -चैतन्य से शून्य होते हैं । अतः उनमें कवित्व अथवा वक्तृत्व सुलभ वाचा नहीं होती और जब तक वह वाचा ( वाणी ) प्राप्त न हो तब तक किसी योग्य का गुण-गान नहीं हो सकता । इस प्रकार की वारणी प्राप्त होने पर भी अधिकतर देव एवं मनुष्य अपनी भवाभिनन्दिता के योग से अन्यों का अर्थात् गुरणगान करने के लिये योग्य देव एवं मनुष्यों आदि के अवगुणों का कीर्तन करने के लिये ही प्रयत्नशील होते हैं और इस प्रकार से विशिष्ट शक्ति प्राप्त करके भी स्व आत्मा को मलिन करने में ही प्रवृत्त होते हैं । कुछ ही भव-भीरू महापुरुष इस प्रकार की वक्तृत्व एवं कवित्व शक्ति प्राप्त करने के पश्चात् स्तुति एवं स्तवन करने योग्य गुणवान देव- गुरु आदि की स्तुति 108 1 [ जिन भक्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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