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त्वया विना दुष्कृतचक्रवालं,
नान्यः क्षयं नेतुमलं ममेश ! को वा विपक्षप्रतिचक्रमूलं,
चक्र विना छेत्तुमलं भविष्णुः ? ॥१६॥ हे स्वामी ! आपके अतिरिक्त मेरे पाप-समूह को क्षय करने में अन्य कौन समर्थ है ? अथवा शत्रु-सेना का मूलोच्छेदन करने के लिए चक्र के अतिरिक्त कौन समर्थ हो सकता है ? (१६)
यद् देवदेवोऽसि महेश्वरोऽसि,
बद्धोऽसि विश्वत्रयनायकोऽसि । तेनान्तरङ्गारिगणाभिभूत
स्तवाग्रतो रोदिमि हा सखेदम् ॥१७॥ जिन कारणों के लिए आप देवाधिदेव हैं, महेश्वर हैं, बुद्ध हैं, तीनों लोकों के नायक हैं और मैं अन्तरंग शत्रुओं से पराजित हो चुका हूँ, इस कारण आपके समक्ष मैं खेद सहित रुदन करता हूँ। (१७)
स्वामिन्नधर्मव्यसनानि हित्वा,
मनः समाधौ निदधामि यावत् । तावत्धेवान्तरवैरिणो मा
मनल्पमोहान्ध्यवशं नयन्ति ॥१८॥ हे स्वामी ! जब तक अधर्मों एवं व्यसनों का परित्याग करके मैं अपने मन को समाधि में स्थापित करता हूँ उतने में तो क्रोध से ही मानो मेरे अन्तरंग शत्रु मुझे मोहान्ध कर देते हैं । (१८)
त्वदागमाद्विद्धि सदैव देव !
मोहादयो यन्मम वैरिणोऽमी । तथापि मूढस्य पराप्तबुद्ध या,
तत्सन्निधौ ही न किमप्यकृत्यम् ॥१६॥ हे देव ! आपके आगमों के द्वारा मैं सदा मोह आदि को अपना शत्रु समझता हूँ, परन्तु मुझ मूर्ख को शत्रु में उत्कृष्ट विश्वास हुआ है, जिससे मोह आदि के समीप रह कर मुझ से कौनसा कुकृत्य नहीं होगा ? अर्थात मोह आदि के कारण पुद्गल में विश्वास अथवा पुद्गल में अपनत्व की जिन भक्ति ]
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