________________
खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य, किञ्चिन्मानं प्रकल्प्य च ।
संमान्ति देहे गेहे वा, न गेहेनदिनः परे ॥६॥
आकाश के पूष्प के समान किसी वस्तु की कल्पना करके और उसे सिद्ध करने के लिये किसी प्रमाण को प्रस्तुत करके घर में शरवीर(गेहेनर्दी) परतीर्थिक अपने देह में अथवा घर में समाते नहीं हैं अर्थात् हमारा ही धर्म श्रेष्ठ है यह मानकर व्यर्थ फूलते हैं । (६)
कामराग-स्नेहरागा -वीषत्करनिवारणौ ।
दृष्टिरागस्तु पापीयान् , दुरूच्छेदः सतामपि ॥१०॥ काम-राग एवं स्नेह-राग का निवारण सुकर है, किन्तु पापी दृष्टि-राग सज्जन पुरुषों के लिये भी दुरुच्छेद है । (१०) .
प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे, दशौ लोकम्पूरणं वचः।
इति प्रीतिपदे बाढं, मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥ प्रसन्न मुख, मध्यस्थ लोचन और लोकप्रिय वचनों के धारक अत्यन्त प्रेम के स्थान स्वरूप आपके विषय में भी मूढ लोग उदासीन रहते हैं ।(११)
तिष्ठेद्वायुवेदद्रि -ज्वलेज्जलमपि क्वचित् ।
तथापि ग्रस्तो रागाद्य - प्तो भवितुमर्हति ।।१२॥ कदाचित् वायु स्थिर हो जाये, पर्वत पिघल जाये और जल जाज्वल्यमान हो जाये, तो भी राग आदि से ग्रस्त पुरुष प्राप्त होने के योग्य नहीं है । (१२)
सातवां प्रकाश
धर्माधमौं विना नाङ्ग, विनाङ्गन मुखं कुतः।
मुखाद्विना न वक्तृत्वं, तच्छास्तारः परे कथम् ? ||१|| धर्म और अधर्म विहीन देह नहीं होता, देह के बिना मुह नहीं होता और मुह के बिना वाणी नहीं होती। तो फिर धर्म, अधर्म और देह आदि से रहित अन्य देव उपदेशक कैसे हो सकते हैं ? (१)
82 ]
[ जिन भक्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org