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सर्वथा निजिगीषेण, भीतभीतेन चागसः ।
त्वया जगत्त्रयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥३॥ हे नाथ ! सर्वथा जीतने की अनिच्छा होने पर भी तथा पाप से अत्यन्त भयभीत होते हुए भी आपने तीनों लोकों को जीत लिया है। सचमुच महान आत्माओं की चतुराई कोई अद्भुत ही होती है । (३)
दत्तं न किञ्चित्कस्मैचिन्नातं किञ्चित्कुतश्चन ।
प्रभुत्वं ते तथाप्येतत्, कला कापि विपश्चिताम् ॥४॥ हे नाथ ! आपने किसी को कुछ (राज्य आदि) दिया नहीं और किसी से कुछ (दण्ड आदि) लिया नहीं, तो भी आपका यह प्रभुत्व है जिससे यह लगता है कि कुशल पुरुषों की कला कोई अद्भुत होती है। (४)
यददेहस्यापि दानेन, सुकृतं नाजितं परैः ।
उदासीनस्य तन्नाथ !, पादपीठे तवालुठत ॥५॥ हे नाथ ! देह का दान देकर भी अन्यों ने जो सुकृत नहीं कमाया, वह सुकृत उदासीनता से रहने वाले आपके पादपीठ में लेटता रहा । (५)
रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना ।
भीमकान्तगुरणेनोच्चैः, साम्राज्यं साधितं त्वया ॥६॥ हे नाथ ! राग आदि के प्रति क्रूर एवं समस्त प्राणियों के प्रति दयालु अापने भयानकता तथा मनोहरता रूपी दो गुणों से महान् साम्राज्य प्राप्त कर लिया है । (६)
सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु, दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः ।
स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या, तत्प्रमारणं सभासदः ॥७॥ हे नाथ ! पर-तीथिकों में समस्त प्रकार के समस्त दोष हैं और आपमें समस्त प्रकार से समस्त गुण हैं। यदि आपकी यह स्तुति मिथ्या हो तो सभासद प्रमाण हैं । (७)
महोयसामपि महान्, महनीयो महात्मनाम् ।
अहो ! मे स्तुवतःस्वामी, स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥८॥ अहो ! हर्ष की बात यह है कि बड़े से बड़े और महात्माओं द्वारा भी पूजनीय स्वामी की आज मैं स्तुति कर रहा हूँ। (८)
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[ जिन भक्ति
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