________________
रागाहिगरलाघ्रातोऽकार्ष यत्कर्मवैशसम् ।।
तद्वक्तुमप्यशक्तोऽस्मि, धिग् मे प्रच्छन्नपापताम् ॥३॥ हे नाथ ! राग रूपी साँप के विष से व्याप्त मैंने जो अयोग्य कार्य किये हैं, उनका वर्णन करने में भी मैं समर्थ नहीं हूँ। अतः मेरे प्रच्छन्न पापों को धिक्कार है। (३)
क्षणं सक्तः क्षरणं मुक्तः, क्षरणं क्रद्धः क्षणं क्षमी ।
मोहाद्यैः क्रीडयैवाहं, कारितः कपिचापलम् ॥४॥ हे प्रभु ! मैं क्षण भर सांसारिक सुखों में आसक्त हुअा हूँ तो क्षण भर उक्त सुख के विपाक का विचार करने से विरक्त हुआ हूँ; क्षण भर क्रोधी हुआ हूँ तो क्षण भर के लिये क्षमाशील हया हैं। इस प्रकार की चपल क्रीडाओं से ही मोह आदि मदारियों ने मुझे बन्दर की तरह नचाया
प्राप्यापि तव सम्बोधि, मनोवाक्कायकर्मजैः ।
दुश्चेष्टितैर्मया नाथ ! , शिरसि ज्वालितोऽनलः ॥५॥ हे नाथ ! आपका धर्म पाकर भी मैंने मन, वचन और काया के व्यापारों से उत्पन्न दुष्ट चेष्टाओं से सचमुच अपने मस्तक पर अग्नि जलाई
त्वय्यपि त्रातरि त्रात -र्यन्मोहादिमलिम्लुचैः ।
रत्नत्रयं मे ह्रियते, हताशो हा हतोऽस्मि तत् ॥६॥ हे रक्षक ! आप रक्षक विद्यमान हैं तो भी मोह आदि चोर मेरे ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी तीन रत्नों का हरण करके जा रहे हैं, जिससे हा ! मैं हताश हो गया हूँ। (६)
भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः ।
तत्तवाड़ घ्रौ विलग्नोऽस्मि, नाथ ! तारय तारय ॥७॥ मैं अनेक मतों में भटका हूँ परन्तु उन सब में मैंने आपको ही तारणहार के रूप में देखा है. जिससे मैं आपके चरणों से लिपट गया हूँ। अतः हे नाथ ! आप कृपा करके मेरा उद्धार करो, मेरा उद्धार करो। (७)
जिन भक्ति ]
[ 99
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org