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भवत्प्रसादेनैवाह -मियतों प्रापितो भुवम् । प्रौदासीन्येन नेदानीं, तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥
हे नाथ ! आपकी कृपा से ही मैं इतनी भूमिका को आपकी सेवा की योग्यता को प्राप्त कर सका हूँ । अतः अब उदासीनता से मेरी उपेक्षा करना योग्य नहीं है, उचित नहीं है । (८)
ज्ञाता तात ! त्वमेवैक -स्त्वत्तो नान्य: कृपापरः । नान्यो मत्तः कृपापात्र - मेधि यत्कृत्यकर्मठः ||६|| तात् ! आप ही एक ज्ञाता हैं। आपसे अधिक ग्रन्य कोई दयालु नहीं है और मुझसे अधिक अन्य कोई कृपापात्र ( दया पात्र ) नहीं है । करने योग्य कार्य में ग्राप कुशल हैं अतः जो करने योग्य हो उसे आप करने के लिये तत्पर बनें। (8)
सत्रहवाँ प्रकाश
स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन्, सुकृतं चानुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः ॥ १ ॥
हे नाथ ! किये गये दुष्कृतों की गर्हा एवं किये गये सुकृतों की अनुमोदना करता हुआ, अन्य की शरण से रहित मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हूँ । ( १ )
पापे,
मनोवाक्कायजे कृतानुमतिकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूया -दपुनः क्रिययान्वितम् ||२||
हे भगवन् ! करने कराने और अनुमोदना के द्वारा मन वचन काया से हुए पाप के लिए जो दुष्कृत लगा हो उसे पुनः नहीं करने की प्रतिज्ञा से आपके प्रभाव से मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो । (२)
कुछ
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यत्कृतं सुकृतं किञ्चिद्, रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं मार्गमात्रानुसार्यपि ॥ ३॥
हे नाथ ! रत्नत्रयी के मार्ग का केवल अनुकरण करने वाला जो सुकृत मैंने किया हो उस सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ । (३)
भी
[ जिन भक्ति
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