Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 115
________________ तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान्समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसै -यरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥७॥ हे नाथ ! आपके शासन रूपी अमृत रस से जिन्होंने अपनी आत्मा का सदा सिंचन किया है, उन्हें हमारा नमस्कार हो। उन्हें हम दो हाथ जोड़ते हैं और उनकी हम उपासना करते हैं । (७) भवे तस्यै नमो यस्यां, तव पादनखांशवः । चिरं चूडामरणीयन्ते, ब महे किमतः परम् ? ॥८॥ हे नाथ ! उस भूमि को भी नमस्कार हो जहां आपके चरणों के नाखूनों की किरणें चिरकाल तक चूडामणि के समान सुशोभित होती हैं। इससे अधिक हम क्या कहें ? (८) जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि यन्महः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्राम -रामणीयकलम्पटः ॥६॥ हे नाथ ! आपके गुण समूह की रमणीयता में मैं बार-बार तन्मय हुआ हूँ जिससे मेरा जन्म सफल है, मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। (६) - - सोलहवाँ प्रकाश त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः शमरसोर्मयः ।। पराणयन्ति मां नाथ ! , परमानन्दसम्पदम् ॥१॥ हे नाथ ! एक ओर आपके पागम रूपी अमृत के पान से उत्पन्न उपशम रस की तरंगें मुझे बलपूर्वक मोक्ष की सम्पदा प्राप्त कराती इतश्चानादिसंस्कार -मूच्छितो मूर्च्छयत्यलम् । रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥ तथा दूसरी ओर अनादिकालीन संस्कार से उत्पन्न राग रूपी उरग (साँप) के विष का वेग मुझे मूच्छित कर देता है - मोहित कर देता है । विनष्ट पाशा वाला मैं अब क्या करू ? (२) 98 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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