Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 113
________________ तथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे । यथाऽपकारिणि भवा -नहो ! सर्वमलौकिकम् ॥५॥ उपकार करने में तत्पर भक्तों पर भी अन्य देव उतने प्रसन्न नहीं होते जितने प्रसन्न आप आपका अपकार करने वाले (कमठ, गोशाला आदि) प्राणियों पर होते हैं । अहो ! आपका समस्त अलौकिक है । (५) हिंसका अप्युपकृता, प्राश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् ? ॥६॥ हे वीतराग ! (चण्डकौशिक आदि) हिंसकों पर आपने उपकार किया है और (सर्वानुभूति तथा सुनक्षत्रमुनि आदि) आश्रितों की आपने उपेक्षा की है। आपके इस विचित्र चरित्र के विरुद्ध प्रश्न भी कौन उठा सकता है । (६) तथा समाधौ परमे, त्वयात्माविनिवेशितः । सुखी दुःख्यस्मि नास्मोति, यथा न प्रतिपन्नवान् ॥७॥ आपने अपनी आत्मा को परम समाधि में उस प्रकार स्थापित कर दी है कि जिससे मैं सुखी हूं अथवा नहीं ? अथवा मैं दुःखी हूं अथवा नहीं, इसका भी आपको ध्यान न रहा, उसका ज्ञान होने की आपने तनिक भी परवाह तक नहीं की। (७) ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं, कथं श्रद्धीयतां परैः ? ॥८॥ ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों आपमें अभेद रूप में हैं। इस प्रकार के आपके योग के माहात्म्य में अन्य किस प्रकार श्रद्धा कर सकते हैं ? (८) पंद्रहवां प्रकाश जगज्जैत्रा गणास्त्रात -रन्ये तावत्तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुत्यैव जगत्त्रयी ॥१॥ हे जग-रक्षक ! जगत को जीतने वाले आपके अन्य गुण तो दूर रहें परन्तु आपकी उदात्त (पराजित न कर सकें वैसी) एवं शान्त मुद्रा ने ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है। (१) 96 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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