Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 106
________________ द्वयं विरुद्ध भगवंस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्तिता ॥६॥ हे भगवन् ! श्रेष्ठ निर्ग्रन्थता (निःस्पृहता) और उत्कृष्ट चक्रवर्तित्व (धर्म सम्राट् पदवी) ये दो विरुद्ध बातें आपके अतिरिक्त अन्य किसी भी देव में नहीं है । (६) नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितु क्षमः? ॥७॥ अथवा तो जिनके पांचों कल्याणक पर्यों में नारकीय जीव भी सुख प्राप्त करते हैं, उनके पवित्र चारित्र का वर्णन करने में कौन समर्थ है । (७) शमोऽद्भुतोऽद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाद्भुता । सर्वादभुतनिधीशाय, तुभ्यं भगवते नमः ।।८।। अद्भुत समता, अद्भुत रूप और समस्त प्राणियों पर अद्भुत कृपा करने वाले तथा समस्त अद्भुतों के महानिधान हे भगवन् ! आपको नमस्कार हो। (८) गयारहवां प्रकाश निघ्नन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥१॥ हे नाथ ! परीषहों की सेना का संहार करने वाले तथा उपसर्गों का तिरस्कार करने वाले आपने समता रूपी अमृत की तृप्ति प्राप्त की है। अहो ! बड़ों की चतुराई कुछ अद्भुत होती है । (१) प्ररक्तो भुक्तवान्मुक्ति -मद्विष्टो हतवान्द्विषः । अहो ! महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः ॥२॥ हे नाथ ! आप राग-रहित हैं फिर भी मुक्ति-रमणी का उपभोग करते हैं और द्वष-रहित हैं फिर भी आप प्रांतरिक शत्रुओं का संहार करते हैं । अहो ! लोक में दुर्लभ महान आत्माओं की महिमा कोई अद्भुत ही होती है। (२) जिन भक्ति ] [ 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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