Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 110
________________ तेरहवां प्रकाश अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यथितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥१॥ हे भगवन् ! मोक्ष - मार्ग में प्रयाण करने वाले प्राणियों को आप बिना बुलाये ही सहायता करने वाले हैं, अकारण-वत्सल हैं, प्रार्थना किये बिना ही आप अन्य व्यक्तियों का कार्य करने वाले हैं तथा बिना सम्बन्ध के ही आप विश्व के बंधु हैं ॥१॥ अनक्तस्निग्धमनस -ममजोज्ज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां, शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥ हे नाथ ! ममता रूपी चिकनाई से बिना चुपड़े ही स्निग्ध मन वाले, मार्जन किये बिना ही उज्ज्वल वाणी का उच्चारण करने वाले तथा धोये बिना ही निर्मल शील के धारक आप हैं; अतः शरण ग्रहण करने योग्य मैं आपकी शरण अंगीकार करता हूं। (२) प्रचण्डवीरवतिना, शमिनी समवतिना । त्वया काममकुट्यन्त, कुटिलाः कर्म-कण्टकाः ॥३॥ बिना क्रोध के वीर व्रत वाले, प्रशम रूपी अमृत के योग से विवेक युक्त चित्त वाले तथा सबके प्रति समान भावपूर्ण व्यवहार करने वाले आपने कर्म रूपी कुटिल कण्टकों को पूर्णत: कुचल दिया है । (३) अभवाय महेशाया -गदाय नरकच्छिदे । अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मैचिद् भवते नमः ॥४॥ भव (महादेव) नहीं तो भी महेश्वर, गदा नहीं तो भी नरक का छेदन करने वाले नारायण, रजो गुण नहीं तो भी ब्रह्मा ऐसे कोई एक आपको नमस्कार हो। (४) . 1. श्री वीतराग प्रभु अभव-भव रहित हैं, महेश-तीर्थकर लक्ष्मी स्वरूप परम ऐश्वर्य सम्पन्न हैं, अगद-रोग रहित हैं, नरकच्छिद-धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करने से भव्य प्राणियों की नरक गति के छेदक हैं, अराजस-कर्म रूपी रजरहित हैं तथा ब्रह्मा-परब्रह्म स्वरूप मोक्ष में लोन होने से ब्रह्मा रूप हैं। जिन भक्ति ] [ 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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