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श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता, युज्येयातां यदीश ! तत् ।
त्वच्छासनस्य साम्राज्य -मेकच्छत्रं कलावपि ॥३॥ हे ईश ! श्रद्धावान श्रोता एवं बुद्धिमान वक्ता दोनों का योग हो जाये तो इस कलियुग में भी आपके शासन का एकछत्र साम्राज्य है । (३)
युगान्तरेऽपि चेन्नाथ ! भवन्त्युच्छङ्कलाः खलाः ।
वृथैव तहि कुप्यामः, कलये वामकेलये ॥४॥ हे नाथ! अन्य कृतयुग आदि में भी गोशाला जैसे उच्छखल व्यक्ति होते हैं तो फिर अयोग्य क्रीड़ा वाले इस कलियुग के ऊपर हम व्यर्थ ही कुपित होते हैं । (४)
कल्याणसिद्धयं साधीयान् कलिरेव कषोपलः ।
विनाग्नि गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥५॥ कल्याण की सिद्धि के लिये इस कलियुग रूपी कसौटी का पत्थर ही श्रेष्ठ है । अग्नि के बिना काकतुण्ड (अगर) धूप के गन्ध की महिमा में वृद्धि नहीं होती। (५)
निशि दीपोऽम्बुधौ द्वोपं, मरौ शाखी हिमे शिखी।
कलो दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाम्जरजः करणः ॥६॥ रात्रि में दीपक, सागर में द्वीप, मरु-भूमि में वृक्ष और शीतकाल में अग्नि की तरह कलियुग में दुर्लभ आपके चरण-कमलों की रज हमें प्राप्त । हुई है । (६)
युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि, त्वदर्शनविना कृतः । ____नमोऽस्तु कलये यत्र, त्वदर्शनमजायत ॥७॥
हे नाथ ! अन्य युगों में आपके दर्शन किये बिना ही मैंने संसार में परिभ्रमण किया है । अतः इस कलियुग को ही नमस्कार है कि जिस में मुझे आपके दर्शन हुए। (७)
बहुदोषो दोषहीनात्त्वतः कलिरशोभत ।
विषयुक्तो विषहरात्फरणीन्द्र इव रत्नतः ॥८॥ हे नाथ ! विषाक्त (विषेला) विषधर जिस प्रकार विषहारी रत्न से सुशोभित होता है, उसी प्रकार से अनेक दोषों से युक्त यह कलियुग समस्त दोषों से रहित आपसे शोभायमान है । (८)
जिन भक्ति ]
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