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तेन स्यां नाथवांस्तस्मै, स्पृहयेयं समाहितः ।
ततः कृतार्थो भूयासं भवेयं तस्य किङ्करः ॥५॥
उनके कारण मैं सनाथ हूं, समाहित मन वाला मैं उनकी इच्छा करता हूं, मैं उनसे कृतार्थ होता हूं, और मैं उनका सेवक हूं । ( ५ )
तत्र स्तोत्रेण कुर्यां च पवित्रां स्वां सरस्वतीम् । इदं हि भवकान्तारे, जन्मिनां जन्मनः फलम् ||६||
उनकी स्तुति करके मैं अपनी वाणी पवित्र करता हूं क्योंकि इस भव-वन में प्राणियों के जन्म का यही एक फल है । (६)
क्वाहं पशोरपि पशु -र्वीतरागस्तवः
क्व च ।
उत्तितीर्षु ररण्यानीं, पद्भ्यां पङ्गुरिवास्म्यतः ॥७|| पशु से भी गया बीता मैं कहाँ और सुरुगुरु (बृहस्पति ) से भी असंभव वीतराग की स्तुति कहाँ ? इस कारण दो पाँवों से बड़े भारी वन को लांघने के अभिलाषी पंगु के समान मैं हूं । ( ७ )
जिन भक्ति ]
तथापि श्रद्धामुग्धोsहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विशृङ्खलाप वाग्वृत्तिः श्रद्दधानस्य शोभते ॥ ८ ॥
तो भी श्रद्धा-मुग्ध मैं प्रभु की स्तुति करने में स्खलित होने पर भी उपालम्भ का पात्र नहीं हूं । श्रद्धालु व्यक्ति की सम्बन्ध - विहीन वाक्य-रचना भी सुशोभित होती है । (८)
श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्,
- वीतरागस्तवादितः । कुमारपाल भूपाल : प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥६॥
श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित इस श्री वीतरागस्तव से श्री कुमारपाल भूपाल श्रद्धा-विशुद्धि-लक्षण एवं कर्मक्षय-लक्षण इच्छित फल प्राप्त
करें। (e)
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दूसरा प्रकाश
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प्रियङ्ग ु- स्फटिक स्वर्ण - पद्मरागाञ्जनप्रभः प्रभो ! तवाधौतशुचिः, कायः कमिव नाक्षिपेत् ॥१॥
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