________________
यत्क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि ।
सर्वाद्भुतप्रभावाढ्ये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥१०॥ समस्त प्रकार के अद्भुत प्रभावशाली जंगम कल्पवृक्ष के समान आपके पृथ्वी पर विचरण करने से दुर्भिक्ष समाप्त हो जाता है। (१०)
यन्मनः पश्चिमे भागे, जितमार्तण्डमण्डलम् ।
माऽभूद्वपुर्दु रालोकमितीवोत्पिण्डितं महः ॥११॥
आपके देह के दर्शन में रुकावट न हो उसके लिये ही मानो सुरअसुरों ने आपके मस्तक के पीछे एक स्थान पर ही एकत्रित किए हुए आप के देह का ही मानो महातेज न हो ऐसे सूर्य-मण्डल से भी अधिक तेजस्वी तेज का मण्डल-भामण्डल स्थापित किया हुआ है । (११)
स एष योगसाम्राज्य - महिमा विश्वविश्रुतः ।
कर्मक्षयोत्थो भगवन्कस्य नाश्चर्यकारणम् ? ॥१२॥ हे भगवन् ! घाती कर्म के क्षय से उत्पन्न विश्व-विख्यात योग साम्राज्य की महिमा भला किसे आश्चर्यचकित नहीं करती ? (१२)
अनन्तकालप्रचित - मनन्तमपि सर्वथा ।
त्वत्तो नान्यः कर्मकक्षमुन्मूलयति मूलतः ॥१३॥ अनन्त काल से उपाजित अनन्त कर्म-वन का आपके सिवाय अन्य कोई भी मूलोच्छोदन करने में समर्थ नहीं है । (१३)
तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, नियासमभिहारतः ।
यथानिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः ॥१४॥ हे प्रभु ! चारित्र रूपी उपाय में बार बार के अभ्यास से आप उस प्रकार से प्रवृत्त हुए हैं जिससे अनिच्छा से भी मोक्ष रूपी उत्कृष्ट लक्ष्मी आपने प्राप्त की है । (१४)
मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितामोदशालिने ।
कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥ मैत्री भावना के पवित्र पात्र स्वरूप, प्रमोद भावना के द्वारा सुशोभित तथा करुणा एवं मध्यस्थ भावना के द्वारा पूजनीय आप योगात्मा (योग स्वरूप) को नमस्कार हो। (१५)
जिन भक्ति ]
[ 75
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org