Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 91
________________ आपके विहार रूपी वायु की लहरों से सवा सौ योजन के क्षत्र में पूर्वोत्पन्न रोग रूपी बादल तुरन्त विलीन हो जाते हैं । (४) नाविर्भवन्ति यद्भूमौ मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिप्रक्षिप्ता, अनीतय इवेतयः ||५|| राजाओं द्वारा परित्यक्त नीतियों की तरह भूमि में मूषक (चूहे ) शलभ ( टिड्डी) और पोपट आदि के उपद्रव क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । (५) स्त्रीक्षेत्रपद्रादिभवो, यद्वै राग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्त्तवर्षादिव भुवस्तले ||६|| आपकी कृपा रूपी पुष्करावर्त्त मेघ (बादलों) की वृष्टि से ही मानो आप जहां चरण रखते हैं वहाँ स्त्री, क्षेत्र एवं नगर आदि से उत्पन्न द्व ेष रूपी अग्नि का शमन हो जाता है । ( ६ ) तत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्य शिवोच्छेद डिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ !, मारयो भुवनारयः ॥७॥ हे नाथ ! शिव का उच्छेद करने के लिये डिम-डम नाद के समान आपका प्रभाव भूमि पर होने से लोक-शत्रु तुल्य महामारी, मरकी आदि उपद्रव उत्पन्न नहीं होते । ( ७ ) कामवर्षिरिण लोकानां त्वयि विश्वैकवत्सले । प्रतिवृष्टि र वृष्टिर्वा भवेद्यन्नोपतापकृत् ॥८॥ Jain Education International 1 लोक- कामित की वृष्टि करने वाले अद्वितीय विश्ववत्सल आपके विद्यमान होने से परितापकारी अतिवृष्टि अथवा अनावृष्टि नहीं होती । ( 5 ) स्वराष्ट्र - परराष्ट्रेभ्यो यत्क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात् सिंहनादादिव द्विपाः ॥६॥ जिस प्रकार सिंह- नाद से हाथी भाग जाते हैं उसी प्रकार से स्वराष्ट्र एवं पर-राष्ट्र से उत्पन्न क्षुद्र उपद्रव आपके प्रभाव से तुरन्त नष्ट हो जाते हैं । (2) 74 ] For Private & Personal Use Only [ जिन भक्ति www.jainelibrary.org

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