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हे प्रभु ! प्रियंगु के समान नीले वर्ण की, स्फटिक के समान उज्ज्वल वर्ण की, स्वर्ण के समान पीत वर्ण की, पद्मराग के समान लाल और अञ्जन के समान श्याम कान्ति वाली और धोये बिना ही पवित्र आपकी देह भला किसे आश्चर्य-चकित नहीं करेगी ? (१)
मन्दार - दामवन्नित्य - मवासित - सुगन्धिनि ।
तवाङ्ग भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ॥२॥ कल्पवृक्ष के पुष्पों की माला के समान स्वभाव से ही सुगन्धित आपके देह पर देवाङ्गनाओं के नेत्र भौंरों की तरह मंडराते हैं । (२)
दिव्यामतरसास्वाद - पोषप्रतिहता इव ।
समाविशन्ति ते नाथ ! नाङ्ग रोगोरगव्रजाः ॥३॥ हे नाथ ! दिव्य अमृत रस के स्वाद की पुष्टि से पराजित हो गये हों उस प्रकार से कास, श्वास आदि रोग रूपी सांपों के समूह आपके देह में प्रविष्ट नहीं होते । (३)
त्वय्यादर्शतलालीन - प्रतिमाप्रतिरूपके ।
क्षरत्स्वेदविलीनत्व - कथाऽपि वपुषः कुतः? ॥४॥ दर्पण में प्रतिबिम्बित प्रतिबिम्ब की तरह स्वच्छ आपके देह में से निकलते पसीने से व्याप्त हो ऐसी बात भी कहां से हो सकती है ? (४)
न केवलं रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव ।
वपुः स्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥५॥ हे वीतराग ! केवल आपका मन ही राग-रहित है ऐसी बात नहीं है; आपके देह का रुधिर भी दूध की धारा के समान उज्ज्वल है, श्वेत है । (५)
जगद्विलक्षणं कि वा, तवान्यद्वक्तुमीश्महे ? ।
यदविस्रमबीभत्सं, शुभ्र मांसमपि प्रभो ! ॥६॥ अथवा हे प्रभु ! जगत् से विलक्षण आपका हम अन्य कितना वर्णन करने में समर्थ हो सकते हैं ? क्योंकि आपका मांस भी दुर्गन्ध-विहीनदुर्गञ्छा-विहीन तथा उज्ज्वल है । (६)
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[ जिन भक्ति
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